पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४३४

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ताके ढिग अमल ललौहें विवि बिद्रुम से
फरकति ओप जाम मोतिन की कांति सो।
भीतर ते कढ़ति मधुर बोन कैसी धुनि
सुन करि भानु परि कानन सुहाति सी।

थान कचि वंदी जन थे। इनका मुख्य नाम थान गय था। इनकी भाषा ललित है और 'दलेल प्रकाश' नामक एक रीति ग्रंथ हो इनका पाया जाता है। पद-विन्यास देखने से यह प्रतीति होती है कि भाषा पर इनको अच्छा अधिकार था एक पद्य देखिये:—

दासन पै दाहिनी परम हंस वाहिनी हौ,
पोथी कर बोना सुर मंडल मढ़त है।
आसन कँवल अंग अंबर धवल
मुखचंद सो अमल रंग नवल चढ़त है।
ऐसी मातु भारती की आरती करत धान
जाको जस विधि ऐसो पंडित पढ़त है।
ताकी दया दीठि लाख पाथर निराखर के
मुखते मधुर मंजु आखर कढ़त है।

रीति ग्रंथकारों के बाद अब मैं उन प्रेम-मार्गी कवियों की चर्चा करूंगा जो प्रेम में मत्त होकर अपने आंतरिक अनुराग से ही कविता करते थे। उनका प्रेममय उल्लास उनको पंक्तियों में बिलसित मिलता है और उनके हृदय का मधुर प्रवाह प्रत्येक सहृदयको विमुग्ध बना देता है। इस शताब्दी में मुझको इस प्रकारके चार पांच कवि-पुंगवही ऐसे दिखलायी पड़ते हैं जो उल्लेख योग्य हैं और जिनमें विशेषता पायी जाती हैं। वे हैं—घन आनन्द नागरीदास सीतल, वोधा और रसनिधि। क्रमशः इनका परिचय मैं आपलोगों को देता हूं।