पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४४०

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भोगों और विभवों की ओर फूटी आंख से भी नहीं देखा। राज्यसिंहासन से उनको ब्रज रज प्यारी थी ओर राजसी ठाटों से भक्ति मयी भावना। उनमें तदीयता इतनी थी कि वे भगवद्भजन में हो मत्त रहते। और संसार के समस्त सुखों की ओर आंख उठा कर भी न देखते। राजा-महाराजाओं में ऐसा सच्चा त्यागी कोई दृष्टिगत नहीं होता। वे गोस्वामी हित हरिवंश वा चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय में थे अतएव उन्हीं के समान उनमें आत्म विस्मृति सी थी। वे दिनरात भगवद्गुणगानमें रत रहते और हरि-यश वर्णन कर के स्वर्गीय दाम करते मिलते। उनकी यह वृत्ति उनकी समस्त रचनाओं में हृष्टिगत होती है। उन्होंने लगभग सत्तर बहत्तर ग्रंथों की रचना की है। परन्तु उन सब में ललित पदों में भगवल्लीला ही वर्णित है। अधिकांश ग्रंथ ऐसे ही है कि जिनमें थोड़े से पद्दों में भगवान की किसी लीला का गान है। इन ग्रंथों की भाषा सरस व्रजभाषा है फिर भी उसमें कहीं कहीं राजस्थानी भाषा के शब्द भी मिल जाते हैं। इनके पदों में बहुत अधिक मोहकता एवं मधुरता है। सबयाओं में भी बड़ा लालित्य है। अन्य रचनायें इस कोटि की नहीं हैं। परन्तु प्रेमधारा उनमें भी बहती मिलती है, जिसको अनेक भावों की तरंगे बड़ीही मुग्ध करी हैं। व्रजभाषा की जितनी विशेषतायें हैं वे सब उनकी रचनाओं में मिलती हैं और कहीं कहीं उनमें ऐसी अनूठी उक्तिया पाई जाती है जो स्वर्णाभरण में मणि सी जटित जान पड़ती है। कुछ रचनायें नीचे लिखी जाती हैं:—

१— उज्जल पख की रैन चैन उज्जल रस दैनी।
उदिन भयो उडुराज अरुन दुति मन हर लैनी।
महा कुपित ह्वै काम ब्रह्म अस्त्रहिं छोड्यो मनु।
प्राची दिसितेप्रजुलित आवतिअगिनि उठीजनु।
दहन मानपुर भये मिलन को मन हुलसावत।
छावत छपा अमंद चंद ज्योंज्यों नभ आवत।
जगमगाति बन जोति सोत अमृत धारा से।