पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४४१

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नव द्रु म किसलय दलनि चारु चमकति तारा से।
स्वेत रजत की रैन चैन चित मैन उमहनी।
तैसी मंद सुगंध पवन दिन मनि दुख दहनी।
सिला सिलाप्रति चंद चमकि किरननि छविछाई।
विच विच अंब कदंब झंब झुकि पायंन आई।
ठौर ठौर बहुं फेर ढेर फूलन के सोहत ।
करत सुगंधित पवन सहज मन मोहत जोहत ।
ठौर ठौर लखि ठौर रहत मनमथ सो भारी ।
विहरत विविध विहार नहाँ गिरिवर गिरधारी।

२-भादौ की कारी अँ ध्यारी निसा
झुकि बादर मंद फुही बरसावै ।
स्यामा जू आपना ऊचा अटा पै
छकी रसरीति मलारहि गावै ।
ना समै मोहन कौ दग दूरी ले
आतुर रूप को भीख यों पावै ।
पौन मया करि घूंघट टारै
दया कर दामिना दीप दिखावै ।

३-जौ मेरे तन होते दोय ।
मैं काहूते कछु नहिं कहतो
मोले कछु कहतो नहि कोय !
. एक जो तन हरि विभुखन के
सँग रहतो देस विदेस ।