पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४७२

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३— दया कुँवरिया जगत में नहीं रह्यो थिर कोय।
जैसो बास सराय को तैसो यह जग होय।
४— बड़ो पेट है काल को नेक न कहूं अघाय।
राजा राना छत्र पति सबकू लीले जाय।
५— दुख तजि सुख की चाह नहिं नहिं बैकुंठ विमान।
चरन कमल चित चहत हौं मोहिं तुम्हारी आन।

उन्नीसवीं शताब्दी जैसे भारतवर्ष के लिये एक विचित्र शताब्दी है वैसे ही हिन्दी भाषाके लिये भो। इस शताब्दीमें धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक बड़े २ परिवर्तन जिस प्रकार हुये वैसे ही भाषा सम्बन्धी अनेक लौट फेर भी हुये। हिन्दी भाषा ही नहीं, भारतवर्ष की समस्त प्रान्तिक भाषाओं का काया कल्प इसी शताब्दी में हुआ। उर्दू भाषा की नींव अठारहवीं शताब्दीके उत्तरार्ध में पड़ चुकी थी। इस शताब्दी में वह भी खूब फली फूली। मीर, इंशा, ज़ौक़ और नासिख़ ऐसे महाकविओं ने उसका लोकोत्तर शृंगार किया। मुसल्मान राज्य का वह अंतिम प्रदीप जो दिल्ली में धुँधली ज्योति धारण कर जलरहा था, उसका निर्वाण इसी शताब्दीमें हुआ। जिससे ब्रिटिश सूय्य अपनी अतुल आभा भारतवर्ष के प्रत्येक प्रान्तों में विस्तार करने में समर्थ हुआ। परिणाम उसका यह हुआ कि नवीन ज्योति के साथ नये नये भाव एवं बहुत से नूतन विचार देश में फैले और एक नवीन जागर्ति उत्पन्न हो गयी। इस जागर्ति ने भारत की वर्त्तमान सभ्यतामें हलचल मचा दी ओर उसमें नवीन आविष्कारों का उदय हुआ।

राजा राममोहन राय, परमहंस राम कृष्ण, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामो विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ ऐसे धर्म सँस्कारक, न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानाडे ऐसे समाज सुधारक दादा भाई नौरौज़ी, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, माननीय गोपालकृष्ण गोखले, बाबू सुरेन्द्र नाथ बैनर्जी एवं महात्मा गांधी ऐसे गजनीतिक नेता, महर्षि मालवीय जैसे हिन्दू धर्म के रक्षक, समाज के उन्नायक अथच गजनोतिके धुरंधर संचालक इसी शताब्दी