पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४७३

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में उत्पन्न हुये। ऐसी दशा में यदि साहित्य में नव-स्फूर्ति उत्पन्न और हिन्दीभाषा को भी नवजीवन इस शताब्दी में प्राप्त हो तो कोई आश्चर्य नहीं। क्योंकि साहित्य सामाजिक भावों के विकास का ही परिणाम होता है। साहित्य के लिये अनुकूल भाषा की बड़ी आवश्यकता होती है। यही कारण है कि इस शताब्दी में हिन्दी भाषा ने अपना कलेवर विचित्र रूप से बदला। उसमें यह परिवर्तन इस शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ। पूर्वार्द्ध में पूर्वागत परम्परा ही अधिकतर दृष्टिगत होती है, यद्यपि उसमें परिवर्तन के लक्षण प्रगट हो गये थे। मैं क्रमशः परिवर्तन प्रणाली को आप के सामने उपस्थित करूंगा।

इस शताब्दी में निम्न-लिखित प्रसिद्ध रीति ग्रंथकार हुये हैं। क्रमशः मैं इनका परिचय आप को दूंगा और यह भी बतलाता चलूंगा कि इनके समय में भाषा का क्या रूप था और उस पर समय का क्या प्रभाव पड़ा:— पदमाकर, ग्वाल, राय रणधीर सिंह, लछिराम, गोविंदगिल्लाभाई, प्रताप शाह।

पदमाकर का कविता काल अठारहवीं शताब्दीसे प्रारम्भ होता है, किंतु उनकी प्रौढ़ कविता का काल यही शताब्दी है। इसलिये हमने इसी शताब्दी में उनको रक्खा है। हिन्दी साहित्य संसार में पदमाकर एक विशेष स्थान के अधिकारी हैं। उनकी रचना में ऐसा प्रवाह है, जो हृदय को ग्स-सिक्त किये बिना नहीं रहता। शब्द विन्यास में उन्होंने ऐसी महदयता का परिचय दिया है जैसी महाकवियों में ही दृष्टिगत होती है। भाव को मूर्तिमन्त बनाकर सामने लाना उनकी विशेषता है। शब्द में झंकार पैदा करना, उसको भावचित्रण के अनुकूल बना लेना, अपनी उपज से उसमें अनोखे बेल बूटे तराशना, जिनमें रस छलकता मिले, ऐसी उक्तियों को सामने लाना उनकी रचना के विशेष गुण हैं। अनुप्रास एवं वर्ण मैत्री उनकी कविता का प्रधान अंग है, किन्तु इम सरसता और निपुणता से वे उसका प्रयोग करते हैं कि उनके कारण से न तो भाषा दब जाती है और न भाव के स्फुटन में व्याघात उपस्थित होता है। जैसे