उनके इस विचार का खण्डन करते हैं. वे प्रवेशिकाके पृष्ट ९८ में लिखते हैं -
"किसी पाश्चात्य विद्वान् ने पालि को विल्कुल कृत्रिम भाषा बतलाया है, किन्तु यह सर्वथा असंगत है, यह कहना ही बाहुल्य है"
वे ऐसा कहते तो हैं, परन्तु उन्हों ने जो पहले स्वयं लिखा है, वही उनके इस उत्तर कथन का विरोधी है । डाक्टर चटर्जी महोदय ने जो कथन किया है, उसे आप पहले पढ़ चुके हैं, वे कहते हैं, 'पाली' मथुराप्रान्त की भापा है, जो शौरसेनी का पूर्वरूप है, और जिसे भूल से सिंहलवालों ने मागधी कहा । लेख इच्छा के विरुद्ध बहुत विस्तृत हो गया, किन्तु मतभिन्नता का निराकरण न हो सका। तथापि यह स्वीकार करना पड़ेगा, कि आदि अथवा पहली प्राकृत वह है, जिसके उपरान्त देशपरक नामवाली प्राकृतों की रचना हुई । इस पहली प्राकृत को पाली कहिये चाहे वौद्धमागधी अथवा आर्ष प्राकृत ।
देशपरक नाम की दृष्टि से मागधी को दूसरी ही प्राकृत मानना पड़ेगा, चाहे वह बौद्धमागधी न होकर प्राकृतमागधी ही क्यों न हो। ऐसी दशा में वौद्ध मागधी को प्राकृत मागधी का पूर्वरूप मानना पड़ेगा। जैसा मैं पहले दिखला आया हूं, उससे यह बात स्पष्ट हो गई है, कि वौद्धमागधी ही बाद को पाली कहलाई। पाली नाम की कल्पना बौद्धोंद्वारा ही हुई है, वे ही इस नाम के उद्भावक हैं, और वौद्धशास्त्र की पंक्ति उसका आधार है। यह जान लेने पर यह वात समझ में आ जाती है कि क्यों पाली का पर्यायवाची नाम मागधी है। यह में स्वीकार करूंगा कि डाक्टर चटजों महोदय का कथन इस उक्ति का विरोधी है, और जैसा उन्हों ने बतलाया है. उससे पाया जाता है, कि वर्तमानकाल के विद्वानों का मन ही उनका मत है। तथापि सब बातों पर दृष्टि रख कर यह स्वीकार करना ही पड़ेगा, कि इन दोनों नामों का जो अभिन्न सम्बन्ध है, उसके पक्ष में ही प्रवल प्रमाण हैं। और यह मान लेनेसे ही सब विचारों का समन्वय हो जाता है, कि वौद्धमागधी अथवा पाली पहली प्राकृत है. और प्राकृतमागधी दुसरी प्राकृत ।
अर्द्धमागधी भी दूसरी प्राकृत है । जो भाषा मगध प्रान्त में बोली जाती