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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५४

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“वररुचि वर्णित महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची, इन चार प्रकार के प्राकृतों में शौरसेनी और मागधी ही वास्तव में स्थानीय भाषायें हैं । इन दोनों में शौरसेनी एक समय में पश्चिमाञ्चल के विस्तृत प्रदेश की बोलचाल की भाषा थी। मागधी अशोक की शिलालिपि में व्यवहृत हुई है, और पूर्व भारत में यही भाषा किसी समय में प्रचलित थी। महाराष्ट्री नाम होने पर भी यह महाराष्ट्र प्रदेश की भाषा नहीं कही जा सकती। पैशाची नाम भी कल्पित मालूम होता है"विश्वकोष पृ॰ ४३८

ऊपर के वर्णन में जहां प्राकृतों में केवल 'प्राकृत; और 'मूल प्राकृत' लिखा गया है, मेरा विचार है वहां उनका प्रयोग आप-प्राकृत अथवा पाली के अर्थ में किया गया है। जिनके विषय में पहले बहुत कुछ लिखा जा चुका है। अपभ्रंश तीसरी प्राकृत है, उसका वर्णन आगे होगा। शेष रही चूलिका पैशाची उसका वर्णन थोड़े में किया जाता है ।

'संस्कृत साहित्य में पिशाच शब्द का प्रयोग अधिकतर दानवों के अर्थ में हुआ है, क्योंकि वे मांसाशी थे, परन्तु वास्तव में भारत के पश्चिमोत्तर में रहनेवाली एक विशेष जाति पिशाच कहलाती है । संस्कृत अथवा प्राकृत के वेयाकग्णा ने पैशाची को प्राकत का एक रूप बतलाया है, हेमचन्द्र ने उसका वर्णन विशेषतया किया है, उन्होंने कहा है यह मध्य प्रान्त की भाषा थी, और उसका साहित्य भी है। मारकण्डेय ने वृहत्कथा से शब्द उद्धृत करके यह कहा कि वह केकय प्रान्त की भाषा है, जो भारत के पश्चिमोत्तर में स्थित है। परन्तु इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि पैशाची वास्तव में उस प्रदेश में बसनेवाली पिशाचों की भाषा थी या क्या ? हेमचन्द्र की पैशाची विल्कुल भारतीय भाषा है, उत्तर पश्चिम की वर्तमान पिशाचभाषा इस प्राकत से भिन्न है। यह संभव हो सकता है कि पिशाच जव मध्यएशिया से आये तो अभारतीय (अर्थात ईगनियन इत्यादि) विशेषताओं को भूल गये और उन विशेषताओं को सुरक्षित रखा जिससे पैशांची प्राकृत मानी जा सके।

वर्तमान पिशाच भाषायें शुद्ध भारतीय नहीं हैं, उनमें उच्चारण के बहुत