पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५३

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गया है, कि महाराष्ट्री के समान उनका आदेशादि होगा। इसका साहित्य भी विस्तृत है।

शौरसेनी के विषय में श्रीयुत डाक्टर सुनीतिकुमार चटर्जी महोदय यह लिखते हैं-

."सारे उत्तर भारत में जिस समय प्राकृत या प्रादेशिक बोलियाँ प्रचलित हुई, तब प्रान्तीय प्राकृतों में अन्तर्वेद--विशेषतया ब्रह्मर्पि देश या कुरु पंचाल की प्राकृत शौरसेनी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी। संस्कृत नाटकों में श्रेष्ठ सवंशज पात्र बात करने में इस शौरसेनी ही का प्रयोग करते थे । इससे यह साबित होता है कि प्राकृतयुग में शौरसेनी का स्थान क्या था । गाने में महाराष्ट्रीय प्राकृत का प्रयोग था, यह ठीक है, परन्तु इसका कारण इतना ही मालूम होता है कि महाराष्ट्रीय प्राकृत में म्वर बहुत होने से वह शौरसेनी से श्रुतिमधुर मानी जाती थी, और गाने में शायद इसीलिये लोग इसे अधिक पसन्द करते थे ।”

"ईस्वी सदी के प्रारम्भ से संस्कृत के बाद उत्तग्में शौरसेनी भद्र समाज में बोली जाती थी, इसका प्रभाव दूसरी प्राकृत बोलियों पर भी पड़ा। भाषातत्व के विचार से ग्रियसन आदि पण्डितों ने, गजस्थान, गुजरात, पंजाब और अवध की प्राकृत बोलियों पर शोरसनी का विशेप प्रभाव स्वीकार किया है। गजस्थानी, गुजराती, पंजाबी और अवधी के विकास में शौरसेनी ने बहुत काम किया है।

शौरसेनी की गणना भी दूसरी प्राकृत में ही है, यह कहना वाहुल्यमात्र है । 'प्राकृत लक्षण' कार ‘चण्ड' ने चार प्राकृत मानी है 'प्राकृत, 'अपभ्रंश, 'पैशाचिकी, और मागधी। प्राकृत लक्षण के टीकाकार पड्भापा मानते हैं, वे उपर्युक्त चार नामों के साथ संस्कृत और शौरसेनी का नाम और बढ़ाते हैं । वररुचि महाराष्ट्री, पैशाची, मागधी और शौरसेनी, चार और हेमचन्द्र 'मूलप्राकृत, शौरसेनी, मागधी. पैशाची, चूलिका और अपभ्रंश छः प्राकृत बतलाते हैं। अध्यापक लासेन यह कहते हैं