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तीसरी प्राकृत अपभ्रंश है। संसार परिवर्तनशील है, जैसे यथाकाल उसके समस्त पदार्थों में परिवर्तन होता है, वैसे ही भाषा में । . मागधी, अर्द्धमागधी, महाराष्ट्री और शौरसेनी में जब अधिक परिवर्तन हुये, और एक प्रकार से उनका व्यवहार सर्व साधारण के लिये असंभव हो गया, तब अपभ्रंश भाषा सामने आई। यह कोई अन्य भाषा नहीं थी, पूर्व कथित भाषायें ही बदल कर अपभ्रंश बन गई। इस समय भारतवर्ष के उत्तरीय प्रदेश और महाराष्ट्र प्रान्त में जितनी आर्य भाषा सम्बन्धिनी भाषायें बोली जाती हैं, उनमें से अधिकांश भाषाओं का आधार अपभ्रंश ही है। अपभ्रंश ही रूप बदल कर अब देशभाषा के रूप में विराजमान है । प्रायः यह कहा जाता है कि जब कोई भाषा साहित्यिक हो जाती है, अर्थात जब उसमें साहित्यिक विशेषतायें आ जाती हैं, तो वह बोलचाल की भाषा नहीं रह जाती। यह कारण निर्देश युक्तिसंगत नहीं मालूम होता। किसी भाषा का साहित्य में गृहोत हो जाना, उसके बोलचाल से वहिष्कृत होने का हेतु नहीं है। यह प्राकृतिक नियम है कि चिरकाल तक किसी भाषा का एक रूप ही नहीं रहता, विशेष कारणों से उसमें यथा समय ऐसा परिवर्तन हो जाता है, कि वह लगभग उससे इतनी दूर पड़ जाती है, कि उसका उससे कोई सम्बन्ध ही नहीं ज्ञात होता। भाषामर्मज्ञ लोग भले ही सूक्ष्म- दृष्टि से उनके पारस्परिक सम्बन्ध को देखते रहें, परन्तु यह सम्बन्ध सर्व साधारण का वोधगम्य नहीं रह जाता । इसीलिये बोलचाल की भाषा स्वयं उससे अलग हो जाती है, और पूर्ववर्ती भाषा का रूप साहित्य में रह जाता है । ऐसा सहस्रो वर्ष के उपरान्त ही होता है, परन्तु होता है अवश्य । अपभ्रंश भाषा ऐसे ही परिवर्तनों का फल था। यह वात स्पष्ट है कि जो भाषा बोलचाल की होती है, जनता की शिक्षा की दृष्टि से बाद को उसमें ही ग्रन्थ-रचना होने लगती है, और धीरे धीरे बोलचाल की भाषा ही साहित्य का रूप ग्रहण कर लेती है। अपभ्रंश भाषा भी ज्यों ज्यों पुष्ट होती गई, त्यों त्यों उसको साहित्यिक रूप मिलने लगा। इस भाषा में बहुत अधिक साहित्य है।
कोषकारों ने अपभ्रंश का अर्थ कुत्सित अथवा अपभापा किया है ---