पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५७२

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उस ग्रंथ में मौलिकता का सा आनन्द आता है। ऐसा सरस और सुन्दर अनुवाद दुर्लमभ है। खड़ी बोलचाल की रचनायें उनकी थोड़ी ही है, परंतु उनमें भी विलक्षणता है। प्रकृति-निरीक्षण-सम्बन्धिनी कवितायें हिन्दी साहित्य में अल्प मिलती हैं। उन्होंने यह कार्य करके इस न्यूनता की बहुत कुछ पूर्त्ति की है और खड़ी बोली को एक नवीन उपहार प्रदान किया है। उनकी इस प्रकार को कुछ रचनायें नीचे लिखी जाती हैं :—

दृग के प्रतिरूप सरोज हमारे
उन्हें जग ज्योति जगाती जहाँ;
जलबीच कलम्ब करम्बित कूल से
दूर छटा छहराती जहाँ;
घन अंजन वर्ण खड़े तृण ताल की
झांई पड़ी दरसाती जहाँ;
बिखरे बक के निखरे सित पंख
बिलोक बकी बिक जाती जहाँ;
निधि खोल किसानों के धूल सने
श्रम का फल भूमि बिछाती जहाँ;
चुनके कुछ चोंच चला करके
चिड़ियाँ निज भाग बँटातीं जहाँ;
कगरों पर कास की फैली हुई
धवली अवली लहराती जहाँ;
मिल गोपों की टोली कछार के
बीच है गाती औ गाय चराती जहाँ;
जननी धरणी निज अंक लिये
बहु कीट पतंग खिलाती जहाँ;