मन जिसे मन में पर काव्य की
रुचिरता चिर ताप करी न हो।
बातें थी करती सखी सँग
मुझे तो भी रही देखती।
गत्वा सा कति चित् पदानि
सुमुखी आगे खड़ी हो गयी।
जाने क्यों हँसती चली फिर गयी
क्या मोहिनी मूर्ति थी।
स्वप्ने साथ न दृश्यते क्षण
महो हा राम मैं क्या करूँ।
ऐनक दिये तने रहते हैं।
अपने मन साहब बनते हैं।
उनका मन औरों के काबू।
क्यों सखि सज्जन नहिं सखि बाबू।
ठठरी उसकी बच जाती है।
जिसको हा वह घर पाती है।
छुड़ा न सकते उसे हकीम।
क्यों सखि डाइन नहीं अफ़ीम।
४ पं॰ रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी गद्य के एक मननशील गम्भीर लेखक हैं। किन्तु उन्होंने खड़ी बोल चाल के पद्य लिखने में भी विशेषतायें दिखलायीं हैं, इसलिये उनका कुछ वर्णन यहां भी आवश्यक ज्ञात होता है। वे भी व्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों में भाव मयी रचना करने में समर्थ हैं। (लाइट आव् एशिया) 'Light of Asia' का जो अनुवाद उन्होंने व्रजभाषा में किया है उसमें उनकी विलक्षण प्रतिभा का विकास हुआ है। पढ़ने से