मधुरता की कमी नहीं है। उनमें आकर्षण भी बड़ा है, उपयोगिता भी कम नहीं । फिर भी अब तक वे कंठाग्र ही रहती आयी हैं। कुछ लोगों की प्रवृत्ति उनको पुस्तक रूप में परिणत करने की पायी गयी, किन्तु जैसी चाहिये बैसो लगन के अभाव में उनको इस विषय में सफलता नहीं मिली। पंडित रामनरेश त्रिपाठी को इस विषय में यथेष्ट सफलता मिल रही है। यह उनकी सच्ची लगन और वांछनीय प्रवृत्ति ही का फल है, जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। हिन्दी-संसार उनकी इस प्रकार को कृतियों का आदर कर रहा है और आशा है आगे भी वे आहत होंगी। उनकी कुछ रचनायें नीचे दो जाती हैं:--
होते जो किसी के बिरहाकुल हृदय हम ।
होते यदि आंसू किसी प्रेमी के नयन के।
गर पतझड़ में बसंत की बयार होते।
होते हम कहीं जो मनोरथ सुजन के।
दुख दलितों में हम आस की किरन होते।
होते यदिशोक अविवेकियों के मन के ।
मानते तो विधि का अधिक उपकार हम
होते गाँठ के धन कहां जो दीन जन के ।
मैं हूँढता तुझे था जब कुंज और बन में ।
तू खोजता मुझेथा जब दीन के वतन में ।
तू आह बन किसी की मुझको पुकारता था।
मैं था तुझे बुलाता संगीत में भजन में।
मेरे लिये खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू ।
मैं बाट जोहता था लेरी किमी चमन में।
बन कर किसी का ऑन मेरे लिये बहा तू।
मैं देखता तुझे था माशृक़ के बदन में।