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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५७६

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मैं था विरक्त तुझसे जग की अनित्यता पर।
उत्थान भर रहा था तबतू किसी पतन में।
तेरा पता सिकन्दर को मैं समझ रहा था।
पर तू बसा हुआ था फरहाद कोहकन में।

७—बाबू मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी संसार के प्रसिद्धि प्राप्त सुकवि हैं। हिन्दी देवी की सेवा करने वाले और उसके चरणों पर अभिनव पुष्पांजलि अर्पण करने वाले जो कतिपय सर्व-सम्मत, सहृदय भावुक हैं उनमें आप भी अन्यतम हैं। आप खड़ी बोली कविताके अनन्य भक्त हैं और अबतक उसमें अनेक ग्रंथों की रचना आपने की है। उन्होंने स्वयं ही रचना करके हिन्दी भाषा के भाण्डार को नहीं भरा है, कई ग्रंथों का सरस अनुवाद कर के भी उसकी पूर्ति को चेष्टा की है। अनुवादित ग्रंथों में बँगला मेघनाद का अनुवाद विशेष उल्लेख-योग्य है जो एक विशाल ग्रंथ है। उनका 'भारत-भारती' नामक ग्रंथ देश-प्रेम से ओत-प्रोत है। उसका आदर भी बहुत अधिक हुआ। खड़ी बोली के किसी ग्रंथ के इतने अधिक सँस्करण नहीं हुये जितने 'भारत-भारती' के काव्य की दृष्टि से बह उच्च कोटि का न हो, परंतु उपयोगिता उसकी सर्व-स्वीकृत है। उनकी भाषा की शुद्धता की प्रशंसा है। वे निस्सन्देह शब्दों को शुद्ध रूप में लिखते हैं। यद्यपि इससे उनकी भाषा प्रायः क्लिष्ट हो जाती है। उन्होंने 'साकेत' नामक एक महा-काव्य भी लिखा है, जाे प्रकाशित भी हो चुका है। उनकी रचना के समस्त गुण इस में विद्यमान हैं। इस ग्रंथ में भाषा की कोमलता, मधुरता और सरसता की ओर उनकी दृष्टि अधिक गयी है। इस लिये इसमें ये बातें अधिक मात्रा में पायी जाती हैं। उन्होंने कई खण्ड काव्य लिखे हैं। 'झंकार' नामक एक पुस्तिका भी उन्हों ने हाल में प्रकाशित की है। यह पुस्तिका भी भाव, और भाषा दोनों की दृष्टि से सरस, सुन्दर और मधुर है। उनकी कुछ रचनायें नीचे लिखी जाती हैं :—

१— इस शरीर की सकल शिरायें
हों तेरी तन्त्री के तार।