मैं राधा बन गयी न था वह
कृष्ण चन्द्र से न्यारा।
किन्तु कृष्ण यदि कभी किसी
पर ज़रा प्रेम दिखलाता।
नख सिख से तो जल जाती
खाना पीना नहिँ भाता।
मुझे बता दो मानिनि राधे
प्रीति रीति वह न्यारी।
क्यों कर थी उस मन मोहन
पर निश्चल भक्ति तुम्हारी।
ले आदर्श तुम्हारा मन को
रह रह समझाती हूं।
किन्तु बदलते भाव न मेरे
शान्ति नहीं पाती हूं।
१३– प्रति शताब्दी में कोई न कोई मुसल्मान कवि हमको हिंदी देवो की अर्चना करते दृष्टिगत होता है। हर्ष है इस शताब्दी के आरंभ में ही हमको एक सहृदय मुसल्मान सज्जन चिर-प्रचलित परम्परा की रक्षा करते दिखलायी देते हैं। ये हैं सैयद अमीर अली 'मीर' जो भध्यप्रान्त के निवासी हैं। पं० लोचन प्रसाद पाण्डेय के समान ये भी वहाँ प्रतिष्टित हिन्दी भाषाके कवि माने जाते हैं। इनको पदवियां और पुरस्कार भी प्राप्त हुये हैं। ये प्राचीन हिंदी-प्रेमी है। पहले व्रजभाषा में कविता करते थे। अब वे समय देखकर खड़ी बोली की सेवा में ही निरत हैं। इनकी खड़ी बोली की रचनाओं में कोई विशेषता नहीं, परन्तु इनका खड़ी बोली की ओर आकर्षित होना ही उसको गौरवित बनाता है। उर्दू और फारसी में सुशिक्षित होकर भी ये शुद्ध खड़ी बोली की हिन्दी में रचना करके उसका सम्मान बढ़ाते हैं, यह कम आनन्द की बात नहीं, इनके कुछ पद्य देखियेः-