पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५९३

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कैधों दिव्यदाम अभिराम आफताब आब
दाबतम तोम ताब तमकत आवै है।
दमकत आवै चारु चोखो मुख मंद हास
कर बर चंद्रहाँस चमकत आवै है।

५- आज दिन भी व्रजभाषा के अनेक प्राचीन कवि जीवित हैं। खड़ी बोली की कविता करनेवालों में भी अनेक कवि ऐसे हैं जो खड़ी बोली के साथ व्रजभाषा की कविता करने में प्रसिद्धि-प्राप्त हैं। अनेक युवकों का प्रेम भी व्रजभाषा के प्रति अब भी देखा जाता है और वे व्रजभाषा की रचना करने में ही आत्म-प्रसाद लाभ करते हैं। पंडित गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही' के नेतृत्व में कानपुर में भी व्रजभाषा कविता की बहुत कुछ चर्चा पायी जाती है। उनकी मण्डली में भी अनेक प्राचीन और नवयुवक जन व्रजभाषा की सेवा के लिये आज भी कटिवद्ध हैं और तन्मयता के साथ अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि व्रजभाषा की ओर से सर्वथा हिन्दी-प्रेमियों की विरक्ति हो गयी है। 'सनेही' जी का एक सिद्धांत है वे कहा करते हैं, जिस भाषा में सुन्दर भाव मिले, जिस रचना में कवित्व पाया जावे, जो सुन्दर, सरस पदावली का आधार हो उसका त्याग नहीं हो सकता। उनके इस विचार का उनकी मण्डलीवालों पर बड़ा प्रभाव है। और इस सूत्र से भी व्रजभाषा को बड़ा सहारा मिल रहा है। यह स्वीकार करना पड़ेगा कि खड़ी बोलचाल की रचना का आजकल विशेष आदर है। कारण इसका यह है कि उसकी वही भाषा है जो गद्य की। उसमें सामयिकता भी अधिक है और वह समय की गति देख कर चल भी रही है। इसलिये उसे सफलता मिल रही है। फिर भी व्रजभाषा अपना बहुत कुछ प्रभाव रखती है और आशा है, कि उसका यह प्रभाव अभी चिरकाल तक सुरक्षित रहेगा। आज दिन भी खड़ी बोली की कविता करनेवालों से व्रजभाषा की कविता करने वालों की संख्या अधिक है।