चानते हैं और व्रजभाषा देवी का श्रृंगार सामयिक रुचि के अनुसार करना चाहते हैं। ये लोग दूर दूर तक कवि-सम्मेलनों में जा कर व्रजभाषा का रस आस्वादन बहुत बड़ी जनता को कराते हैं और व्रजभाषा के उस अनुराग को सुरक्षित रखना चाहते हैं जो अब भी हिंदी-प्रेमी जनता के हृदय में वर्तमान है। 'सरस' जी का 'अभिमन्यु बध' नामक एक काव्य-ग्रन्थ भी हाल में निकला है। उसकी रचना ओजस्विनी और मनोहर है और उसमें सामयिक भावों का सफलता के साथ अनुकूल भाषा में सुन्दर चित्रण है। 'जुगलेश' जी का भी श्रद्धांजलि नामक एक संग्रह ग्रन्थ निकल चुका है। उसकी कवितायें भी हृदय-ग्राहिणी और मनोमुग्धकर हैं। 'जुगलेश' और 'सरस' जी की कविता-पठन-शैली भी बहुत आकर्षक है। हम इस रसिक मण्डल की उन्नति के कामुक हैं। आशा है कि इन सहृदयों और व्रजभाषा के सच्चे सेवकों द्वारा वह यथेष्ट उन्नति लाभ कर सकेगा। 'रसाल' और सरस' की कुछ रचनायें नीचे लिखी जाती हैं:—
१—जामैं न सुमन फैलि फूलत फबीले कहूं
जामैं गाँस फाँस को विसाल जाल छायो है।
काया कूबरी है पोर पोर में पोलाई परी
जीवन बिफल जासु बिधि ने बनायो है।
ताहू पै दवारी बारि बंस-बंस नासिबे को
विधि ने सकल विधि ठाट ठहरायो है।
देखि हरियारी अपनायो ताहि बंसी करि
हरि ने रसाल अधरामृत पियायो है।
२—सुबरन स्यंदन पै सैलजा सुनंदन लौं
सुभट सुभद्रा सुत ठमकत आवै है।
सरस' बखानै कर बीर वास पूरो किये
श्री हरि सिंगार रस गमकत आवै है।