पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५९६

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जब देश में देश-प्रेम का राग छिड़ा और ऐसी रचनायें होने लगी जो सामयिक परिवर्तनों के अनुकूल थीं और श्रृंगार रस की कुत्सा होने लगी तो उसका छायावाद की रचना के रूप में रूपान्तरित हो जाना स्वाभाविक था। एक और बात है। वह यह है कि जब वर्णनात्मक अथवा वस्तु प्रधान (Objective) रचनाओं का बाहुल्य हो जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया भावात्मक अथवा भाव प्रधान (Subjective) रचनाओं के द्वारा हुये बिना नहीं रहती। दूसरी बात यह है कि व्यंजना और ध्वनि-प्रधान काव्य ही का साहित्य-क्षेत्र में उच्च स्थान है। इसलिये चिन्ताशील मस्तिष्क और भाव प्रवण हृदय इस प्रकार की रचनाओं की ओर ही अधिक खिंचता है। यह स्वाभाविकता भी है। क्योंकि वर्णनात्मक रचना में तरलता होती है और भावात्मक रचनाओं में गंभीरता और मोहकता। ऐसी दशा में इस प्रकार की रचनाओं की ओर कुछ भावुक एवं सहृदय जनों का प्रवृत्त हो जाना आश्चर्य जनक नहीं। क्योंकि प्रवृत्ति ही किसी कार्य का कारण होती है। छायावाद की कविताओं के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। 'छायावाद' शब्द कहाँ से कैसे आया, इस बात की अब तक मीमांसा न हो सकी। छायावाद के नाम से जो कवितायें होती है उनको कोई 'हृदयवाद' कहता है और कोई प्रतिविम्ववाद। अधिकतर लोगों ने छायावाद के स्थान पर रहस्यवाद कहने की सम्मति ही दी है। किन्तु अबतक तर्क-वितर्क चल रहा है और कोई यह निश्चित नहीं कर सका कि वास्तव में नूतन प्रणाली की कविताओं को क्या कहा जाय। इस पर बहुत लेख लिखे जा चुके हैं, पर सर्व-सम्मति से कोई बात निश्चित नहीं की जा सकी। छायावाद की अनेक कवितायें ऐसी हैं जिनको रहस्यवाद की कविता नहीं कह सकते, उनको हृदयवाद कहना भी उचित नहीं, क्योंकि उसमें अति व्याप्ति दोष है। कौन सी कविता ऐसी है जिससे हृदय का सम्बन्ध नहीं? ऐसी अवस्था में मेरा विचार है कि 'छायावाद' ही नाम नूतन प्रणाली की कविता का स्वीकार कर लिया जाय तो अनेक तर्कों का निराकरण हो जाता है। यह नाम बहुत प्रचलित है और व्यापक भी बन गया है।