पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५९८

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रूपान्तर से रहस्यवाद का पर्यायवाची शब्द बनाना है। फिर रहस्यवाद शब्द ही क्यों न ग्रहण कर लिया जावे, छायावाद शब्द को क्लिष्ट कल्पना क्यों की जावे? ईश्वर -सम्बन्धी विषयों के लिये यह कथन ठीक है। परंतु सांसारिक अनेक विषय और तत्व ऐसे हैं कि छायावाद की कविता में जिनका वर्णन और निरूपण होताहै। उन वर्णनों और निरूपणों को रहस्य-वाद की रचना नहीं कहा जा सकता। मैं समझता हूं, इस प्रकार की कविताओं और वर्णनों के लिये ही छायावाद नाम की कल्पना की गयी है। दूसरी बात यह है कि 'छायावाद कहने से आजकल जिस प्रकार की कविता का बोध होता है वह बोध ही छायावाद का अर्थ क्यों न मान लिया जावे? मेरा विचार यह है कि ऐसा मान लेने में कोई आपत्ति नहीं। अनेक रूढ़ि शब्दो की उत्पत्ति इसी प्रकार हुई है। आइए, एक दूसरे मार्ग से इस पर और विचार करें।

प्रातः काल फूल हँसते हैं। क्यो हँसते हैं? यह कौन जाने। वे रंग लाते हैं, महकते हैं, मोती जैसे बूंदों से अपनी प्यास बुझाते है, सुनहले तारों से सजते है, किस लिये। यह कौन बतलावे। एक काला-कलूटा आता है, नाचता है, गीत गाता है, भाँवरें भरता है, झुकता है, उनके कानों में न जाने क्या क्या कहता है रस लेता है और झूमता हुआ आगे बढ़ता है क्यो? रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहने ताकती झाँकती अठखे-लियाँ करती एक रँगीली आती है, उनसे हिलती मिलती है, रंग रलियाँ मनाती है, उन्हें प्यार करती है, फिर यह गई वह गई, कहां गई? कौन कहे। कोई इन बातों का ठीक ठीक उत्तर नहीं दे सकता। अपने मन की सभी सुनाता है, पर पते की बात किसने कही। आँख उठा कर देखिये, इधर उधर, हमारे आगे पीछे पल पल ऐसी अनन्त लीलायें होती रहती हैं, परन्तु भेद का परदा उठानेवाले कहाँ हैं? यह तो बहिर्जगत की बातें हुई। अन्तर्जगत और विलक्षण है वहाँ एक ऐसा खिलाड़ी है जो हवा को हवा बताता है, पानीमें आग लगाता है, आसमानके तारे तोड़ता है, आग चबाता है धरती को धूल में मिलाता है, स्वर्ग में फिरता है, नन्दनबन के फूल चुनता है और वैकुण्ठ में बैठ कर ऐसी हंसी हँसता है कि जिधर देखो