पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६०२

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वादी कवियों ने खड़ी बोलचाल की कर्कशता और क्लिष्टता को बहुत कम कर दिया है। जैसे प्राचीन खड़ी बोली की रचनाओं का यह गुण है कि उन्होंने भाषा को बहुत परिमार्जित और शुद्ध बना दिया, उसी प्रकार छायावादी कविता का यह गुण है कि उसने कोमल कान्त पदावली ग्रहण कर खड़ी बोलचाल की कविता के उस दोष को दूर कर दिया जो सहृदय जनों को काँटों की तरह खटक रहा था।

संसार में जितनी विद्यायें हैं सब नियम-बद्ध हैं जितनी कलायें हैं सब सीखनी पड़ती हैं। उनकी भी रीति और पद्धति है। उनकी उपेक्षा करना विद्या और कला को आघात पहुंचाना है। साहित्य का सम्बन्ध विद्या और कला दोनों से है । इस लिये जो उनकी पद्धतियाँ है उनका त्याग नहीं किया जा सकता। उनको परिवर्तित रूप में ग्रहण करें अथवा मुख्य रूप में, परन्तु उनके ग्रहण से ही कार्य्य-सिद्धि-पथ प्रशस्त हो सकता है। साहित्य यदि साध्य है तो नियम उसके साधन हैं। इस लिये उनको अनावश्यक नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक प्रति-भावान पुरुप नई उद्भावनायें कर सकता है, और ये उद्भावनायें भी साधनाओं में गिनी जा सकती हैं। परन्तु उनका उद्देश्य साध्य मूलक होगा, अन्यथा वे उद्भावनायें उपयोगिनी न होगी। गद्य लिखने के लिये छन्द की आवश्यकता नहीं। किन्तु पद्य लिखें और यह कहें कि छन्दः प्रणाली बिलकुल व्यर्थ है तो क्या यह कहना यथार्थ होगा? यदि छन्द प्रणाली व्यर्थ है तो पद्य-रचना हुई कैसे? कुछ नियमित अक्षरों और मात्राओं में जो रचना होती है वही तो पद्य कहलाता है। यह दूसरी बात है कि पद्य की पंक्तियों और अक्षरों की गणना प्रथम उद्भावित छन्दः-प्रणाली से भिन्न हो। किन्तु वह भी है छन्द ही, कोई अन्य वस्तु नहीं। ऐसी अवस्था में छन्द की कुत्सा करना मूल पर ही कुठाराघात करना है और उसी डाल को काटना है जो उसकी अवलम्बन स्वरूपा है। ऐसी ही बातें साहित्य के और अंगों के विषय में भी कही जा सकती हैं। हिन्दी साहित्य का जो वर्त्तमान रूप है वह अनेक प्रतिभावान पुरुषों की चिन्ताशीलता का ही परिणाम है। वह क्रमशः उन्नत होता और सुधरता आयाहै और नयीनयी उद्भावनाओं से भी लाभ उठाता