पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६०३

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आया है। अब भी इस विषय में वह बहुत कुछ गौरवित हो सकता है, यदि उसको सुदृष्टि से देखा जाय। चाहिये यही कि उसका मार्ग और सुंदर बनाया जावे न यह कि उसमें काँटे बिछाये जावें और उच्छृङ्खलता को स्वतंत्रता कह कर उसकी बची-खुची प्रतिष्ठा को भी पद-दलित किया जावे। परमात्माने जिसको प्रतिभा दी है, कविता शक्ति दी है, विद्वत्ता दी है, और प्रदान की है वह मनोमोहिनी उक्ति जो हृदयों में सुधाधारा बहाती है, वह अवश्य राका-मयंक के समान चमकेगा और उसकी कीर्ति कौमुदी से साहित्य-गगन जगमगा उठेगा और वे तारे जो चिरकाल से गगन को सुशोभित करते आये हैं अपने आप उसके सामने मलीन हो जावेंगे। वह क्यों ऐसा सोचे कि आकाश के तारक-चयको ज्योति-र्विहीन बना कर ही हम विकास प्राप्त कर सकेंगे। हिन्दी साहित्य की वर्तमान परिस्थिति को देख कर मुझको ये कतिपय पक्तियाँ लिखनी पड़ी। मेरा अभिप्राय यह है कि साहित्य-क्षेत्र में जो अवांछनीय असंयत भाव देखा जा रहा है उसकी ओर हमारे भगवती वीणापाणि के वर पुत्र देखें और वह पथ ग्रहण करें जिसमें सरसता से बहती हुई साहित्य-रस की धारा आविल होने से बचे और उनके 'छायावाद' की रचनाओं को वह महत्व प्राप्त हो जो वांछनीय है।

यह देखा जाता है कि युवकदल अधिकतर आजकल छायावाद की रचनाओं की ओर आकर्षित है। युवक-दल ही समाज का नेता है, वही भविष्य को बनाता है और सफलता की कुंजी उसी के हाथ में होती है। उसके छायावाद की ओर खिंच जानेसे उसका भविष्य बड़ा उज्ज्वल है, किन्तु उसको यह विचारना होगा कि क्या हिन्दी भाषा के चिर-संचित भांडार को ध्वंस करके और उस भाण्डार के धन के सञ्चय करने वालों की कीर्ति को लोप कर के ही यह उज्ज्वलता प्राप्त होगी? इतिहास यह नहीं बतलाता। जो रत्न हमारी सफलता का सम्बल है, उसको फेंक कर हमारी इष्ट-सिद्धि नहीं हो सकती। भविष्य बनाने के लिये वर्तमान आवश्यक है, परन्तु भूत पर भी दृष्टि होनी चाहिये। हम योग्य न हो और योग्य बनने का दावा करें, हमारा ज्ञान अधूरा हो और हम बहुत बड़े ज्ञानी होने की डींग हाँके, हम कवि पुंगव होने का गर्व करे और साधारण कवि होने की भी योग्यता न