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पद्य का उपयोग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक जाति के जीवन के प्रारंभिक-काल में, निस्संदेह पद्य की ही ओर विशेष प्रवृत्ति देखी जाती है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उस समय गद्य का व्यवहार हो नहीं होता था। वास्तव में अपने शैशव-काल में प्रत्येक जाति उन साधनों और सुविधाओं से रहित होती है जो एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ मिलन अधिक मात्रा में संभव बना सकता है, और न समाज में देनिक जीवन को कार्य्यावली ही में इतनी जटिलता का समावेश हुआ रहता है कि अपनी सिद्धिके लिये वह अधिक-संख्यक मनुष्यों के सहयोग की अपेक्षा करे। ऐसी अवस्था में न तो एक मनुष्य के विचारों का दूसरे मनुष्य के विचारों के साथ संघर्ष होता है और न वह आघात प्रतिघात होता है जो सामूहिक जीवन के अन्योन्याश्रित होने का एक स्वाभाविक परिणाम है। इसी कारण प्रत्येक जाति के साहित्य में सबसे पहले पद्य का और बाद को क्रमशः गद्य का विकाश हुआ है।
मनुष्य को अन्य पशुओं की भाँति सबसे पहले अपने लिये आवश्यक भोजन की चिन्ता करनी पड़ती है। किन्तु उसकी इस चिंता में एक विशेषता है। एक असाधारण बुद्धि उन अन्य पशुओं से पृथक् करती है। इसी बुद्धि के परिणाम स्वरूप वह वर्तमान हो की चिन्ता से मुक्त होकर संतुष्ट नहीं हो सकता भविष्य के लिये भी प्रयत्न करता रहता है। उसके स्वभाव की यह विशेषता उस चिरकाल तक अव्यवस्थित जीवन नहीं ब्यतीत करने देती। क्रमशः स्त्री-पुत्र आदि से संयुक्त हो कर एक समुचित स्थान में गृहस्थ जीवन व्यतीत करने में वह अपने जीवन को सफलता का अनुभव करता है। उसीके ऐसे अनेक परिवारों के एकत्र हो जाने से अथवा एक ही परिवार के कालान्तर में विकसित हो जाने से एक ग्राम उत्पन्न हो जाता है। शत्रु से अपनी रक्षा करने के लिये इस प्रकार के प्रत्येक ग्राम अपना संगठन व्यक्तियों और परिवारों के पारस्परिक सहयोग पर अवलम्बित रखते हैं। इस सहयोग का क्षेत्र जितना ही व्यापक होता जाता है, मानव प्रकृति की विभिन्नताओं के कारण पारस्परिक सामाज्जस्य के मार्ग में उतनी ही पेचीदगी बढ़ती जाती है। फलतः इस सामाज्जस्य की सिद्धि