(६३२)
का हिन्दी गद्य में समावेश किया वह है मुहावरों और कहावतों का प्रयोग, निम्न लिखित वाक्यों के चिन्हित शब्दों और पदों को देखिये:-
१-जिसका जी हाथ में न हो,उसे ऐसी लाखों सूझती हैं।' २- चूल्हे और भाड़ में जाय यह चाहत...........।' ३ -'अब मैं निगोड़ी लाज से कुट करती हूं।' ४-मैं कुछ ऐसा बड़बोला नहीं जो गई को पर्वत कर दिखाऊँ और
झूठ-सच बोल कर उँगलियां नचाऊँ और बेसिर बे ठिकाने की उलझो- सुलझा बातें पचाऊँ।' '५.-- दहना हाथ मुहपर फेर कर आप को जताता हूं, जो मेरे दाता ने चाहा तो वह ताव भाव और कुद-फांद और लपक-झपक दिखाऊँ जो देखते ही आप के ध्यान का घोड़ा.जो बिजलो से भी बहुत चंचल चपला- हट में है, अपनी चौकड़ी भूल जाय।'
- अब कान लगा के. आँखे मिला के,सन्मुख हो के टुक इधर देखिये,किस ढब से बढ़ चलता हूं और अपने फूल की पंखड़ो जैसे होठों से किस रूप के फूल उगलता हूं।'
संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग सर्वथा त्याग कर.अरबी फ़ारसी के शब्दों से मुह मोड़ कर.केवल तद्भव शब्दविशिष्ट ठेठ भाषा में कहावतों आदि का आश्रय ले का इंशा ने जिस चमत्कार की सृष्टि को वह उस समय के हिन्दी गद्य के लिये एक अपूर्व बात थी। उनको भाषा ने आगे के लेखकों के लिये सरल और मुहावरेदार भाषा का एक सुंदर आदर्श उपस्थित किया । किन्तु उसका अनुकरण नहीं हो सका, कारण इसका यह है कि वह गढ़ी भाषा है और उसमें चलतापन अथवा प्रवाह भी नहीं पाया जाता। वह बोलचाल की भाषा भी नहीं है, और न उसमें जैसी चाहिये वैसो लचक है। परन्तु पहले पहल खड़ी बोली का एक उल्लेख-