सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(६३३)

योग्य आदर्श उपस्थित कर के इंशा अल्लाह खांने अपनी उद्भाविनी प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया है ।।

हिन्दी गद्य के विस्तार का तिसरा द्वार एक अन्य दिशा से खुला। जिस प्रेरणा से अमीर खुमरो जैसे लेखक हिन्दो-साहित्य-विकास के प्रारम्भिक काल में हिन्दो को ओर प्रवृत्त हुये थे ठीक उसी प्रकार की प्रेरणा से हिंदी गद्य के विकास का यह नया अवसर प्राप्त हुआ। ईस्ट इंडिया कंपनी को अपने कर्मचारियों को देशी भाषाओं का ज्ञान कगना भी आवश्यक समझ पड़ा। इस उद्देश्य से उसने कलकत्ते में फ़ोट विलियम कालेज की स्थापना की,जिसमें लल्लूलाल और सदल मिश्र हिन्दी के अध्यापक नियत हुये। इस कालेज के प्रधानाध्यापक जान गिलक्रिस्ट ने सन् १८०३ में इन दोनों सज्नौ को हिन्दी पाठ्य पुस्तक तैयार करने का काम सौंपा। इस समय भी शासकों का ध्यान खड़ी बोली ही की ओर गया। शिक्षित कर्मचारियों तथा समाज के सरकारी प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्तियों के सम्पर्क के कारण वे कमसे कम खड़ी बोली के ढाँचे से परिचित थे। परन्तु अरबी और फ़ारसी के तत्सम शब्दों से लदो हुई भाषा की आवश्यकता उन्हें नहीं थी। उनको उर्दू का ज्ञान भी था परंतु वे देश की प्रधान जनता के भावों का परिचय कराने वाली भाषा की टोह में थे। वे ऐसी भाषा के लिये उत्सुक थे जो खड़ी बोली का ढाँचा स्वीकार करती हुई, उस शब्दावली को ग्रहण करे जिसके प्रति अधिकांश हिन्दू समाज के हृदय में एक विशेष संस्कार चिरकाल से चला आता था। संयोग से खड़ी बोली के गद्य ने बीज से अंकुर रूप धारण कर लिया था.और मुंशी सदासुवलाल तथा संयद इंशा अल्ला अपना अपना हिन्दी गद्य का आदर्श उपस्थित कर चुके थे. कि लल्लू लाल जी और सदल मिश्र इस क्षेत्र में उतरे। लल्लू लाल जी ने प्रेमसागर की रचना की। इस प्रथ को भापा देखियेः

१-राजा परीक्षित बोले कि महागज गजसूय यज्ञ होने से सब कोई प्रसन्न हुये। एक दुर्योधन अप्रसन्न हुआ। इसका कारण क्या है तुम मुझे समुझाय के कहो जो मेरे मन का भ्रम जाय:श्री शुकदेव जी बोले,