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काब्य-परम्परा ही को अधिक पसन्द करता है । जैसे मुसल्मान अपने संस्कारों को नहीं छोड़ते उसी प्रकार यह भी असम्भव है कि हिन्दू-जाति को धार्मिक संस्कृति संस्कृत शब्दां का मोह त्याग दे। ऐसी दशा में हिन्दी और उर्दू को एकता के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि हिन्दू और मुसल्मान जातियों के दैनिक सम्पर्क और सहयोग के लिये किसी जीवित सम्बन्ध की स्थापना की जाय दोनों के व्यक्तिगत संस्कारों को एक दूसरे के साथ मिल कर सामंजस्य कर लेने का अवसर दिया जाय ।जब यह सम्भव होगा तो इसे व्यक्त करनेवाली भाषा केवल मुस्लिम समाज अथवा हिन्दू समाज को नहीं होगी. बल्कि भारतीय समाज को होगी,तभी हिन्दी और उर्दू का झगडा मिट जायगा। यह परिस्थिति जिस प्रकार संभव हो सके उसके लिये उद्योगशील न होकर जो लोग प्रति सौ फारसी अरबी शब्दों के साथ पाँच संस्कृत के अथवा प्रति सौ संस्कृत शब्दांक साथ पाँच फ़ारसी अरबी सार्वजनिक प्रयोग जान किन्तु संस्कार शून्य शब्दों का केवल इस लिये व्यवहार करते हैं, कि इसमे उनकी एकना-हितेपणा की घोषणा हो वे समस्या के मूल पर कुठागघात न करके केवल डालियों और पत्तों पर प्रहार करके पेड़ को भूमिशायी बनाना चाहते हैं। अतएव, जब तक मुसल्मान केवक अपने साहित्य-परम्परा-गत विशेषताओं के साथ मुसलमानों की शैली के साथ समझौता होना संभव न बनायेंगे तब तक हिन्दी और उर्दू का विभेद बना ही रहेगा और वे राजा लक्ष्मण सिंह के शब्दों में दो न्यारी न्यारी बोली बनी ही रहेंगी।।
राजा शिव प्रसाद और गजा लक्ष्मण सिंह जिस समय हिंदी गद्य की शैली को एक स्थिर स्वरूप देने का प्रयत्न कर रहे थे उस समय गुजरात से सूर्य की तरह उदित होने वाले स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू जाति। की रक्षा के लिये एक बड़े प्रबल आन्दोलन को जन्म दिया। ईसाइयों के स्वधर्म-प्रचार के प्रयत्न की चर्चा की जा चुकी है। इस प्रयत्न का स्वरूप केवल अनुवादित पुस्तकें जनता में बाँटना हो नहीं था.उसने इससे