पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६५९

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अधिक गम्भीर रूप पकड़ कर हमारे दैनिक जीवन के प्रभावशाली अंगों शिक्षा और चिकित्सा आदि से भी अपना सम्पर्क बढ़ाने की कोशिश की। इसका परिणाम यह हुआ कि विभिन्न प्रान्तों के बहुसंख्यक हिन्दू ईसाई धर्म को स्वीकार करने लगे। इसके अतिरिक्त हिन्दू-समाज के अनेक दुर्बल अंगों पर आक्रमण करके मुसल्मान लोग भी हिन्दुओं को हिन्दू धर्म की गोद में से निकालने की चिन्ता में लगे थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती के आविर्भाव के पहले हिन्दू समाज, विशेष कर संयुक्तप्रान्त और पंजाब का हिन्दू समाज इस अन्धकार में अपना समुचित पथ ढुंढ निकालने में असमर्थ था। स्वामी दयानन्द ने देश और जाति को आवश्यकताओं को समझा और जो कुछ उचित समझा उसे अपने देश वन्धुओं को समझाने का प्रबल प्रयत्न किया। इससे स्वभावतः हिन्दी गद्य को सहारा मिला.क्योंकि उनके और उनके अनुयायियों ने अपना आन्दोलन और प्रचार कार्य हिंदई ही में प्रारंभ किया। राजा शिव प्रसाद की भाषा संबधी नीति को स्वामी दयानन्द के आन्दोलन से भी पनपने का अवसर नहीं मिला। क्योंकि तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक प्रश्नों की मीमांसा हिंदी ही में होने के कारण अधिकांश विचारशील हिन्दुओं को भी संस्कृत के अनेक तत्सम शब्दों की ओर झुकना पड़ा जिसका परिणाम कालान्तर में पंजाब जैसे उर्दू-प्रधान प्रान्त में इस रूप में दिखाई पड़ा कि भाषा तो हुई संस्कृत शब्दों से भरी किन्तु लिपि हुई फारसी--- राजा शिव प्रसाद की शैली का ठीक उलटा। स्वामी दयानन्द सरस्वती की भाषा का एक नमूना देखिये:-

१-'तत्पश्चात् में कुछ दिन तक स्थान टेहरी में ही रहा और इन्हीं पंडित साहब से मैंने कुछ पुस्तकों और ग्रंथों का हाल जो मैं देखना चाहता था दग्याफ़्त किया और यह भी पूछा कि ये ग्रंथ इस शहर में कहाँ कहाँ मिल सकते हैं । उनके खोलते हो मेरी निगाह एक ऐसे विषय पर पड़ी कि जिसमें बिल्कुल झूठो बातें. झूठे तग्जुमे. और झूठे अर्थ थे।"
२-राजा भोज के राज्य में और समीप ऐसे शिल्पी लोग थे कि