पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६६६

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के विद्वान् कहते थे,गीर्वाणवाणोषु विशाल बुद्धिस्तथान्यभाषा रस लोलु-पोहं, अब आज अन्य भाषा वरंच अन्य भाषाओं का करकट (उर्दू) छाती का पीपल हो रही है, तब यह चिन्ता खाये लेती है, कि कैसे इस चुडैल से पीछा छूटे। एक बार उद्योग किया गया तो एक साहब के पेट में समा गया, फिर भी चिन्ता पिशाची गला दबाये है। प्रयाग हिन्दू समाज फ़िकर के मारे कशीदम नालओ बेहोश गश्तम. का अनुभव कर रही है।"

३-"अरे भाई पहले अपना घर तो बाँधो लाला गसजिद पिरशाद सिडी वासितम को समझाओ कि तुम्हारे बुजुर्गों की बोली उर्दू नहीं है, लाला लम्बमोदास मारवाड़ो से कहो कि तुम हिन्दू हो, लाला नोचीमल खन्ना से पूछो तुमलोग संकल्प पढ़ते समय अपने को वर्मा कहते हो कि शेख ? पण्डित यूसुफ़ नरायण कश्मोरी से दग्याफ्त करो कि तुम्हारे दसो संस्कार (मुडनादिक) वेद की रिचाओं से हुये थे कि हाफ़िज के दीवान से इसके पीछे जो सकीर हिन्दी न कर दे तो ब्राह्मण के एडीटर को होली का गुंडा बनाना।"

___ अहा ! भाषा हो तो ऐसी हो, क्या प्रवाह है ! क्या लोच है ! कैसो फड़कती और चलती भाषा है ! दुःख है, यह भाषा पं० जी के साथ ही चली गयी. फिर ऐसी भाषा लिखने वाला कोई उत्पन्न नहीं हुआ। मुहा- वरेदार भाषा लिखने में जैसा भाव-विकाश होता है. वैसा अन्य भाषा लिख ने में नहीं । यदि होता भी है, तो उतना प्रभावजनक नहीं होता । पं० जी को भाषा में अनेक शब्द शुद्ध रूप में नहीं लिखे गये हैं, कारण इसका यह है. कि उनको उस रूप में उन्होंने लिखा है, जैसा वे बोलचाल में हैं। उन की यह प्रणाली गृहोत नहीं हुई । कारण इसका यह है कि एक तो बोल- चाल पर इतनी दृष्टि कौन डाले दूसरी बात यह कि जब कुछ विशेष कारणों से शब्द को तत्सम रूप में लिखा जाना ही अच्छा समझा जाने लगा. तो व्यर्थ सर कौन मारे । चाहे जो हो, परन्तु ऐसी भाषा लिखना टेढ़ी खीर है, सब ऐसी भाषा नहीं लिख सकते । यह गौरव पं० प्रताप नारायण मिश्र