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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६६७

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( ६५३ ) को हिन्दी लिखनेवालों में और पं० रत्ननाथ को उर्दू लिखने वालों में प्राप्त हुआ,अन्य को नहीं। आश्चर्य नहीं कि कोई दिन ऐसा आवे जिस दिन यह भाषा हो आदर्श मानी जावे ।

पण्डित प्रताप नारायण मिश्र के उपरान्त हमारी दृष्टि दो नारायणों पर पड़ती है, एक हैं पण्डित गोबिन्द नारायण मिश्र और दूसरे हैं, पंडित बदरी नारायण चौधरी । परन्तु इनका पथ भिन्न है, यदि वे बोलचाल की हिन्दी लिखने में सिद्धहस्त थे, तो ये दोनों सजन साहित्यिक हिन्दी लिखने में प्रसिद्ध थे।
पं० गोविन्द नारायण मिश्र ने ऐसे वंश में जन्म लिया था जहाँ संस्कृत का विशेष प्रचार था । वे स्वयं भी संस्कृत के विद्वान थे। अतएव यह स्वाभाविक था कि वे हिन्दी गद्य-रचना करते समय संस्कृत-गर्भित वाक्य-विन्यास की ओर झुकें । उनकी भाषा का एक नमूना दिया जाता है:-
१-जिस सुजन समाज में सहस्रों का समागम बन जाता है, जह पठित, कोविद. कूर सुरलिक, अरसिक सब श्रेणी के मनुष्यमात्र का समावेश है, वहाँ जिस समय सुकवि सुपंडितों के मस्तिष्क सुमेरु के सोते के अदृश्य प्रवाहसमान प्रगल्भ प्रतिभा स्रोत से.समुत्पन्न शब्द कल्पना कलित,अभिनव भावमाधुरी भरी. छलकती, अति मधुर रसोली स्रोतःस्वती उस हंस वाहिनी हिन्दी सरस्वती की कवि की सुवर्ण विन्यास समुत्सुक सरस रसना रूपी सुचमत्कारी उत्स (झरने से) कलरव कल कलित अति सुललित प्रबल प्रवाह सा उमड़ा चला आता, ममज्ञ रसिकों के श्रवण पुट रन्ध्र की राह, मन तक पहुंच सुधा से सरस अनुपम काब्य ग्स चखाता है; उस समय उपस्थित श्रोता मात्र यद्यपि छन्द बन्द से स्वच्छन्द समुच्चारित्त शब्द लहरी प्रवाह पुञ्ज को समभाव से श्रवण करते हैं; परन्तु उसका चमत्कार,आनन्द, रसास्वादन, सब को समतुल्य नहीं होता।
एक अवतरण और देखिये:-
२-“सरद पृनों के समुदित पूरन चन्द की छिटकी जुन्हाई. सकल