पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६६९

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को क्या विमुग्ध कर सकेगा। किन्तु इन अवतरणों को देख कर यह न समझना चाहिये कि उनकी समस्त गद्य रचनायें ऐसी ही हैं। ये रचनायें तो पं॰ जी की विशेषता दिखलाने के लिये ही यहाँ उद्धृत की गई हैं। उनका साधारण गद्य सुन्दर है, और उसमें उसकी विशेषतायें पाई जाती हैं। एक अवतरण ऐसे गद्य का भी देखियेः—

"परंतु स्वच्छ दर्पण पर ही अनुरूप यथार्थ सुस्पष्ट प्रतिबिम्ब प्रतिफलित होता है। उससे सामना होते ही, अपनी ही प्रतिबिम्बित प्रतिकृति, मानों समता की स्पर्द्धा में आ, उसी समय सामना करने आमने सामने आ खड़ी होती है। भला कहीं अँधेरी कोठरी की मिट्टी की अति मलिन पुरानी भीत में भी किसी का मुंह दिखाई दिया है? अथवा उस पर कभी क्या किसी बिम्ब का प्रतिबिम्ब पड़ सकता है?" 'आत्मागम की टें टें' शीर्षक लेख-माला में उनका गद्य और अधिक सरल एवं स्पष्ट है। उन्हों ने विभक्तियों को संज्ञापदों से मिलाकर लिखने की परिपाटी चलाई और विभक्ति-विचार, शीर्षक एक लेख लिखकर उसका समर्थन किया। हिन्दी के कुछ लेखकों ने इस परिपाटी का अनुसरण भी किया किन्तु वह सर्व सम्मत नहीं हो सकी। पं॰ जी अपने समय के प्रभावशाली वक्ता और लेखक थे, उनका हिन्दी भाषा प्रेमियों पर अधिकार भी बड़ा था, इन्हीं गुणों के कारण अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सभापतित्व पद भी उन्हें प्राप्त हुआ था।

पं॰ बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' ने भी अधिकतर साहित्यिक गद्य ही लिखने की चेष्टा की। बरन यह कहना चाहिये कि उन्हें साहित्यिक गद्य लिखना ही प्रिय था। यहाँ तक कि साधारण समाचार तक साहित्यिक अलंकारों द्वारा अलंकृत होकर ही उनकी 'आनन्द कादिम्बनी' नामक मासिक पत्रिका में स्थान पाते थे। उनके गद्य में एक अद्भुत सजीवता और सुन्दरता आरंभ से अंत तक दिखलायी पड़ती, जिसे पढ़ते ही पाठकों का हृदय प्रसून समान उत्फुल्ल हो उठता। उनकी भाषा के दो नमूने देखियेः—

१—"जैसे किसी देशाधीश के प्राप्त होने से देश का रंग ढंग बदल