पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६६८

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(६५४) मनभाई के भी मुह मसिमल, पूजनीय अलौकिक पद नख चन्द्रिका की चमक के आगे तेजहोन, मलीन,और कलंकित कर दरसाती, लजातो, सरस सुधा धौली अलौकिक सुप्रभा फेलाती, अशेष मोह जड़ता प्रगाढ़ तमतोम सटकाती मुकाती निज भक्त जनमन वांछित वराभय भुक्ति मुक्ति सुचारु चारों मुक्त हाथों से मुक्ति लुटाती, सकल कला आलाप कलकलित सुललित सुरीली मोड़ गमक झनकार सुतार-तार सुरग्राम अमिराम लसित बोन प्रवीन पुस्तका --कलित मखमल से समधिक सुकोमल अति सुन्दर सुविमल लाल प्रवाल से लाल लाल कर पल्लव सुहाती, बिबिध यिद्याविज्ञान सुभ-सौरभ सरसाते पिकसे फूले सुमन प्रकाश हास बास बसे,अनायास सुगन्धि-तसित बसन लसन सोही सुप्रभा विकसाती.सुविमल मानस विहारी, मुक्ताहारी नोर क्षीर बिचार सुचतुर कवि कोविद गज गज हियसिंहासन निवासिनी मन्दहासिनी त्रिलोक प्रकासिनी सरस्वती माता के अति दुलारे प्राणों से प्यारे पुत्रों की अनुपम अनोखी अतुल बलशालो परम प्रभावशाली सुजन मन मोहिनो नव रस भरी सरस सुखद विचित्र वचन-रचना का नाम ही साहित्य है।

पंडित गोविन्द नारायण मिश्र ने इस प्रकार का गद्य लिख कर हिन्दी भाषा में कविवर वाण विरचित कादम्बरो की शब्दच्छटा दिखलाने को चेष्टा की है. वैसा ही माधुर्य भी उत्पन्न करना चाहा है । परन्तु वह बात तो प्राप्त हुई नहीं. भाषा अवश्य दुर्बोध हो गई । अधिकतर उन्होंने ऐसी ही हिन्दी लिखी है, जब लेखनी उठाते थे, धाग प्रवाह रूप में ऐसी हिन्दी लिखते चले जाते थे। उनको इस प्रकार की हिन्दी लिखने में आनन्द भी बड़ा आता था,क्योंकि दण्डी के ढंग की समस्त पदावली उनको बहुत प्यारी थी। इन अवतरणों को देख कर उनके भाषाधिकार की प्रशंसा करनी पड़ती है। इनमें जो कवि कर्म है, वह भी साधारण नहीं, परन्तु उनकी दुरूहता और जटिलता. उसका आनन्द उपभोग करने नहीं देती।जिस गद्य में छोटे छोटे वाक्य न हों, जो उद्वेलित समुद्र समान अपने प्रचुर समस्त पद प्रयोग उत्ताल तरंगों से आप ही विशुब्ध हो. वह औरों