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लता बढ़ती है और वह बोधगम्य नहीं रह जाती। इस लिये ऐसे शब्दों का ग्रहण अनिवार्य हो जाता है। अनिच्छा अथवा संस्कृति उसके प्रसार में वाधा नहीं पहुंचा सकतो. क्योंकि संसार और समाज सुविधा प्रेमी है। फिर भी पण्डित जी की सम्मति उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखी जा सकती। इस प्रकार की सम्मतियां कार्य में परिणत न हो कर भी भाषा को मर्या- दित करने में बड़ी सहायक होती हैं । इनको पढ़ कर वे लोग भी सावधानता पूर्वक पांव उठाने लगते हैं. जिनको आंख मूद कर चलना ही पसंद आता है । पण्डित जी ने हिन्दी क्षेत्र में साहित्य सम्बन्धी जितने कार्य किये हैं. वे सब वहुमूल्य हैं, और उनके द्वारा हिन्दो संसार अधिक उपकृत हुआ है।
२-- पण्डित भीमसेन जी के उपरान्त हिन्दी के धार्मिक क्षेत्र में अपनी कृतियों द्वारा विशेष स्थान के अधिकारी विद्यावारिधि पं. ज्वाला प्रसाद हैं। आपने भी अनेक ग्रंथा की रचना की है और इस विषय में बड़ा नाम पाया है। आप का हिन्दी का यजुर्वेद भाष्य बड़ा ही परिश्रम साध्य और महान काय्य है। आप की रामायण को टीका बहुत प्रसिद्ध है. उसका प्रचार भी अधिक हुआ है । आप का दयानन्द तिमिर भास्कर नामक ग्रंथ भी उपादेय है । आपने कई पुराणों का अनुवाद भी हिन्दी भाषा में किया है। आपके समस्त ग्रंथ बैंकटेश्वर प्रेस में छपे हैं। आप बहुत बड़े वाग्मी थे। आप जैसा सभा पर अधिकार करते मैंने अन्य को नहीं देखा । आप के रचे ग्रंथों की संख्या भी अधिक है. परन्तु समस्त ग्रंथ धार्मिक विषयों पर ही लिखे गये हैं । केवल बिहारी सतसई की टीका हो ऐसी है जिसे हम धार्मिक ग्रंथ नहीं कह सकते । परन्तु यह टोका उनके पद मर्यादा से बहुत नीचे है। आजीवन धार्मिक क्षेत्र ही उनका था और इसी में उनको अतुलनीय कोति प्राप्त हुई। पण्डित बलदेव प्रसाद आय के लघु भ्राता थे । आपने भी अनेक हिन्दो ग्रंथों की रचना की है, आप के ग्रंथ भी उपयोगी और सुन्दर हैं । आप अपने ज्येष्ट भ्राता को ही प्रतिमूर्ति थे ।।
मिश्र जी के गद्य का उदाहरण भी देखिये - "श्री गोस्वामी जी का जीवन चरित्र लिखने के लिये जिस जिस