पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६८९

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था, और इस सूत्र से उनके सुलिखित ग्रंथों ने आदर ही नहीं पाया, मध्य-प्रदेश में हिन्दी की धाक भी बिठला दी। आपकी लिखी रामायण को विनायकी टोका बहुत प्रसिद्ध है, जो कई जिल्दों में है, इस ग्रंथ के देखने से उनके अगाध ज्ञान का पता चलता है और यह प्रकट होता है कि आप हिन्दी भाषा पर कितना अधिकार रखते थे। आपने पंद्रह बीस ग्रंथ लिखे हैं। अपनी हिन्दी की बहुमूल्य सेवा के कारण आप सर्कार और जनता दोनों से पुरस्कृत हुये हैं। सरकार ने एकबार आपको सहस्र रुपये पुरस्कार में दिये थे, 'कविनायक' एवं साहित्य भूषण की उपाधि भी आप को मिली थी।

१६—पंडित विजयानन्द त्रिपाठी हिन्दी भाषा के धुरन्धर विद्वान् थे। जिस प्रकार संस्कृत के वे प्रकाण्ड पण्डित थे, वैसे ही हिन्दी भाषा के भी। वाग्मी इतने बड़े थे कि जनता पर जादू करते थे। जब कभी उनका भाषण प्रारंभ होता, उस समय सब लोग आई खांसी को भी मुँह के बाहर न निकलने देते। जनता उनके व्याख्यानों को सुन कर प्रस्तर की मूर्ति बन जाती थी। उपकार उनके रोम रोम में भग था, सर्व साधारण का काम निष्काम भाव से करते वे हो देखे गये। विद्यारत्र आप को उपाधि थी। बांकीपुर के बी॰ एन॰ कालेज में प्रोफेसरी करने के उपरान्त वे बी॰ एन॰ कालेजियट स्कूल के हेडपण्डित बहुत दिनों तक रहे। कविता में अपना नाम श्री कवि लिखते थे। उन्होंने बाबू हरिश्चन्द्र की रत्नावली नाटिका को जो अधूरी रह गई थी, पूग किया। रणधीर प्रेममोहिनी, नाटक का संस्कृत में अनुवाद किया, वह भी इस विशेषता के साथ, कि मुख्य ग्रंथ में जिस प्रकार शिष्ट और साधारण जन को भाषा में अन्तर है वैसा ही उन्होंने अपने ग्रंथ में भी संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के आधार से किया। बाबू हरिश्चन्द्र के स्वर्गवास होने पर जो लम्बा लेख उन्होंने लिखा था, वह इतना अपूर्व है, और ऐसी प्रौढ़ भाषा में लिखा गया है, कि जिसने उसको एक बार पढ़ा होगा, मेरा विश्वास है, वह उसको आजन्म न भूला होगा। भारत-जीवन पत्र का जन्म भी उन्हीं के उद्योग का फल था। उनका लिखा हुआ महाअंधेर नगरी नाटक अपने ढंग का