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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/९८

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पहले लिखा गया है कि मैक्समूलरकी यह सम्मति है कि संस्कृत का स्वार्थे 'क' ही बदल कर कर्म्मकारक का 'को' हो गया है, 'बंगभाषा और साहित्य' के रचयिता ने इसको स्वीकार भी किया है, मेरा विचार है कि इसी स्वार्थे 'क' से षष्ठी विभक्ति के 'का' की उत्पत्ति हुई है। केरक के स्थान में प्राकृत भाषा में केरओ प्रयोग मिलता है यही केरओ काल पाकर केरो बन गया, कर, केर और केरी भी हुआ परन्तु सम्बन्ध का चिन्ह 'का' 'की' 'के' भी यही बन गया, यह कुछ क्लिष्ट कल्पना ज्ञात होती है। जैसे—केरो, केरी, और कर का प्रयोग हिन्दी साहित्य में मिलता है—यथा

बंदों पदसरोज सब केरेतुलसी

क्षत्र जाति कर रोष—तुलसी

हौं पंडितन केर पछलगा—जायसी

उसी प्रकार 'क' का प्रयोग भी देखा जाता है—यथा

बनपति उहै जेहि क संसारा—
बनिय सखरज ठकुर हीन।
वैद पूत व्याध नहिँ चीन।

जब सम्बन्ध में का प्रयोग देखा जाता है, तो यह विचार होता है कि क्या यही स्वार्थे क बदल कर सम्बन्ध की विभक्ति तो नहीं बन गया है? जो कहीं अपने मुख्यरूप में और कहों 'का' 'के' 'की' बन कर प्रकट होता है! यदि वह कर्म्म का चिन्ह मैक्समूलर के कथनानुसार हो सकता है, तो सम्बन्ध का चिन्ह क्यों नहीं बन सकता। पहला विचार यदि विवाद ग्रस्त हो तो हो सकता है, परन्तु यह विचार उतना वादग्रस्त नहीं वरन अधिकतर संभव परक है। यदि कहा जावे कि स्वार्थे का अर्थ वही होता है, जो उस शब्द का होता है, जिसके साथ वह रहता है, इसका अलग अर्थ कुछ नहीं होता जैसे संस्कृत का वृक्षक, चारुदत्तक, अथवा पुत्रक आदि, एवं हिन्दी का बहुतक, कबहुंक एवं कछुक आदि। तो जाने दीजिये उसको, निम्नलिखित सिद्धान्त को मानिये—