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है। इसी प्रकार 'सम' से 'से' की उत्पत्ति का विचार इस कारण से हुआ पाया जाता है कि प्राचीन कवियों को सम को 'से' के स्थान पर प्रयोग करते देखा जाता है। निम्नलिखित पद्यों को देखिये—
कहि सनकादिक इन्द्र सम।
बलि लागौ जुध इन्द्र सम॥
पृथ्वीराज रासो।
अवधी में, कहीं ब्रजभाषा में भी 'से' के स्थान पर 'सन' का प्रयोग किया जाता है। इस 'सन' के स्थान पर 'सें' और सों भी होता है। इस लिये कुछ भाषा मर्मज्ञों ने यह निश्चित किया है कि 'सम' से 'सन' हुआ और 'सन' से सों और फिर 'से' हुआ। ऊपर लिख आया हूं कि प्राकृत में पंचमी बहुवचन में 'हिंतो' होता है। अनुमान किया गया है कि 'हिंतो' से ही पञ्चमी का 'तें' बना, परन्तु 'से' का ग्रहण पंचमी में कैसे हुआ, यह बात अब तक यथार्थ रूप से निर्णीत नहीं हुई।
(४) सम्बन्ध कारक की विभक्ति के विषय में अनेक मत देखा जाता है—मिस्टर बप् अनुमान करते हैं कि हिन्दी का 'का' और बँगलाभाषा की षष्ठी विभक्ति का चिन्ह, संस्कृत षष्ठी बहुवचन के 'अस्माकम्' एवं युष्माकम्' इत्यादि के 'क' से गृहीत है।[१] किन्तु हार्नली साहब ने बप् के अनुमान के विरुद्ध अनेक युक्तियाँ दिखलाई हैं, उनके मत से संस्कृत के 'कृते' के प्राकृत रूपान्तर से ही बँगला ओर हिन्दी के षष्ठी कारक का चिन्ह 'का' अथवा विभक्ति ली गई है[१] 'कृते' से प्राकृत 'केरक' उत्पन्न हुआ है। इस 'केरक' का अनेक उदाहरण पाया जाता है, जहां यह 'केरक, शब्द प्रयुक्त हुआ है, वहां उसका कोई स्वकीय अर्थ दृष्टिगत नहीं होता, वहां वह केवल षष्ठी के चिन्ह स्वरूप ही व्यवहृत हुआ है—यथा
"तुमम् पि अप्पणो केरिकम् जादि मसुमरेसि"
"कस्स केरकम् एदम् पवँणम्" मृ-क-षष्ठ अंक
इसी केरक अथवा केरिक से हिन्दी 'कर' 'केर' और 'केरी' की उत्पत्ति हुई है।[१]