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पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१२६

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"काव्य जोर से पढ़ा जा रहा है।" "काव्य से अर्थ समझा जाता है" "काव्य सुना, पर अर्थ समझ में न आया" इत्यादि सार्वजनिक व्यवहार से एक प्रकार का शब्द ही काव्य सिद्ध होता है, अर्थ नही। आप कहेंगे कि ऐसे व्यवहार के लिये, जिसमें कि काव्य शब्द का प्रयोग "केवल शब्द" के विषय में किया गया हो, लक्षणा वृत्ति से काम चला लो। हम कहते हैं—हाँ, ऐसा हो सकता है; पर तब, जब कि आप किसी दृढ़ प्रमाण से यह सिद्ध कर दें कि काव्य शब्द का मुख्य प्रयोग 'शब्द और अर्थ' दोनों के लिये ही होता है। वही तो हमे दिखाई नहीं देता। आप कहेंगे—शब्द प्रमाण से यह बात सिद्ध है; क्योकि काव्यप्रकाशकारादिकों ने इस बात को लिखा है। हाँ, ठीक, पर महाराज, जिस पर अभियोग चलाया जाय उसी के कथन के अनुसार निर्णय नहीं किया जा सकता। उन्हीं से तो हमारा मत-भेद है, अतः उनका कथन प्रमाण रूप में उपस्थित करना उचित नहीं। इस तरह यह सिद्ध हुआ कि शब्द और अर्थ दोनों का नाम काव्य है, इस बात में कोई प्रमाण नही; तब हमारे उपस्थित किए हुए पूर्वोक्त व्यवहार के अनुसार "एक प्रकार के शब्द का नाम ही काव्य है। इस बात को कौन मना कर सकता है। इसी से, "शब्दमात्र के काव्य मानने में कोई साधक युक्ति नही है, इस कारण दोनों को काव्य मानना चाहिए" इस दलील का भी जवाब हो जाता है; क्योंकि उसमें लौकिक व्यवहार को हम प्रमाण रूप में उपस्थित कर चुके हैं।