सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

(१२)

सो इस तरह एक प्रकार के शब्द का नाम ही काव्य सिद्ध हुआ, अतः उसी का लक्षण बनाने की आवश्यकता है, न कि अपनी तरफ से कल्पित किए हुए शब्द और अर्थ के लक्षण बनाने की। यही बात वेद, पुराण आदि के लक्षणों में भी समझनी चाहिए, अर्थात् उनको भी शब्दरूप समझकर ही उनका लक्षण बनाना चाहिए, नहीं तो यही दुर्दशा उनमें भी होगी।

कुछ लोग एक और दलील पेश करते है। वे कहते हैं कि—काव्य शब्द का प्रयोग उसके लिये होना चाहिए, जिससे रस का उद्बोध होता हो—जिससे हमारे अंतरात्मा में एक प्रकार का आनंदास्वाद जग उठे। यह बात शब्द और अर्थ दोनों में समान है, इस कारण दोनों को काव्य कहना युक्ति-संगत है। पंडितराज कहते हैं—यह आपकी दलील ठीक नहीं। यदि आनंदास्वाद को जगा देनेवाली वस्तु का नाम ही काव्य हो, तो आप राग को भी काव्य कहिए; क्योंकि ध्वनिकार प्रभृति सभी साहित्य-मर्मज्ञों ने राग को रसव्यंजक (आनंदास्वाद का जगानेवाला) माना है। बहुत कहने की आवश्यकता नहीं, यदि आप रसव्यंजक को ही काव्य मानने लगे तो जितने नाट्य के अंग हैं—नृत्य-वाद्य आदि, सबको आप काव्य मान लीजिए। ऐसी दशा में आपको यह झगड़ा हटाना कठिन हो जायगा। इस कारण, जो रसोद्बोधन में समर्थ हो—जिससे आनंदास्वाद जग उठे—उसे ही काव्य मानना चाहिए, यह दलील पोच सिद्ध हुई।