पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१४३

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तो मैं इसका मुँह चूम लूँ" इस नायिका की इच्छा की ही अमिव्यक्ति क्यों न मान ली जाय। इसका समाधान यह है—पद्य मे लिखा है कि "वह अपने मनोरथों को सफल करने में असमर्थ है", जिससे यह सिद्ध होता है कि उसके हृदय में सब मनोरथ विद्यमान हैं, और चुंबन की इच्छा भी एक प्रकार का मनोरथ ही है—मनोरथ शब्द से ही सामान्य रूप से उसका भी वर्णन हो जाता है; इस कारण वह वाच्य है, व्यंग्य नहीं। पर आप कहेंगे कि मनोरथ शब्द से सामान्य इच्छा के वाच्य होने पर भी "चुंबन करूँ" इस विशेष विषय से युक्त इच्छा के व्यंग्य होने में क्या बाधा है? इसका उत्तर यह है कि—चमत्कार नहीं रहेगा, बस यही बाधक है; क्योंकि जो पदार्थ विशेष रूप से व्यंग्य हो, वह भी यदि सामान्य रूप से वाच्य हो जाय, तो उसकी सहृदयों के हृदय में चमत्कार उत्पन्न करने की, शक्ति नष्ट हो जाती है। अलंकार शास्त्र के ज्ञाताओं ने उसी व्यंग्य को चमत्कारी स्वीकार किया है, जो किसी तरह भी अभिधावृत्ति का स्पर्श न करे। दूसरे, चुंबन की इच्छा को जब रति का अनुभाव मानें तभी वह सुंदर हो सकती है; अन्यथा जिस प्रकार "चुंबन करता हूँ" यह कहने में कोई चमत्कार प्रतीत नहीं होता, उसी प्रकार उसमें भी कोई चमत्कार न हो सकेगा। अतः वह रति की अपेक्षा गौण ही है, प्रधान नहीं।

इसी तरह इस श्लोक में लज्जा भी (यद्यपि व्यंग्य है, तथापि) मुख्यतया व्यंग्य नहीं हो सकती। इसका कारण यह है कि