पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१४४

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"नेत्रो को कुछ कुछ मुकुलित करती हुई" इस नायिका के विशेषण से लज्जा अभिव्यक्त होती है। श्लोक मे उस विशेपण का सिद्ध वात के अनुवादरूप मे वर्णन किया गया है, विधेयरूप मे नही अर्थात् उसका विधान नहीं है। तव उस विशेषण से पूर्णतया संबंध रखनेवालो लज्जा ही इस श्लोक का प्रधान अर्थ है, यह नहीं कहा जा सकता। आप कहेंगे कि-नही, श्लोक मे लिखा है कि "नेत्रो को कुछ कुछ मुकुलित करती हुई......"देख रही है", इस कारण यह तो आपको भी मानना पड़ेगा कि श्लोक मे इस प्रकार देखने का विधान है, अतः वह अनुवाद्य अर्थ से ही पूर्णतया संबंध रखती है यह नहीं कहा जा सकता। हम कहते है कि ठीक; पर इस तरह भी लजा का कार्य आँखों का मीचना हो सकता है, देखना नही। श्लोक मे आँखों के कुछ कुछ मीचने के साथ ही देखने का वर्णन किया गया है और देखना बिना रति (आंतरिक प्रेम) के हो नहीं सकता। यदि इस श्लोक से लज्जा को ही व्यक्त करना होता, तो "आँखें मुकुलित कर रही है। यही लिख देत, देखने की बात उठाने का कोई विशेष प्रयोजन नहीं रह जाता। अब सोचो कि जिस प्रकार, अभिधावृत्ति के द्वारा, रति के अनुभाव (कार्य) "देखने" की अपेक्षा लज्जा का अनुभाव "आँखों का मीचना" गौण हो रहा है, वह देखने का विशेषण वन रहा है, उसी प्रकार, व्यंजनावृत्ति के द्वारा, लज्जा का भी रति की अपेक्षा गौण होना ही उचित है।