पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१६

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तथा उसके पुत्र दाराशिकोह[१] की छत्रच्छाया मे ही व्यतीत हुआ था। शाही जमाने के संस्कृत-पंडितों मे हम इन्हें परम भाग्यशाली मानते हैं, क्योंकि 'तख्तताऊस' और 'ताजमहल' आदि परम-रम्य वस्तुओं के वनवानेवाले और बड़ी भारी शान-शौकत से रहनेवाले सार्वभौम शाहजहाँ के उस शक्रोपम वैभव के भोग मे इनका भी एक भाग था।

'संग्राम-सार'[२] और 'रस-रहस्य'[३] आदि ग्रंथों के निर्माता, जयपुर-नरेश श्रीरामसिंहजी प्रथम के आश्रित, ब्रजभाषा के सुप्रसिद्ध कवि माथुर चतुर्वेदी श्रीकुलपति मिश्र, जो आगरे के रहनेवाले थे, इनके शिष्य थे और इन पर उनकी अत्यंत श्रद्धा-भक्ति थी। इसके प्रमाण में हम 'संग्राम-सार' से दो पद्य उद्धृत करते हैं। वे ये हैं—

शब्द-जोग में शेष, न्याय गौतम कनाद मुनि।
सांख्य कपिल, अरु व्यास ब्रह्मपथ, कर्मनु जैमिनि॥
वेद अंग-जुत पढ़े, शील-तप ऋषि वसिष्ठ सम।
अलंकार-रस-रूप अष्टभाषा-कविता-क्षम॥


  1. 'जगदाभरण' नामक ग्रंथ में दाराशिकोह का ही वर्णन है।
  2. 'संग्राम-सार' वि॰ सं॰ १७३३ में बना था, यह म॰ म॰ श्रीगिरिधरशर्मा चतुर्वेदीजी के पिता कविवर श्री गोकुलचंद्रजी का कथन है।
  3. 'रस-रहस्य' का समय तो कवि ने स्वयं ही लिखा है—'संवत् सत्रह सौ वरष (अरु) बीते सत्ताईस। कातिक बदी एकादशी बार बरनि वानीश । (रसरहस्य, अष्टम-वृत्तांत, पद्य २११)