पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१८५

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प्राचीन प्राचार्यों ने विभावादिको का साधारण होना (किसी विशेष व्यक्ति से संबंध न रखना) लिखा है, उसका भी बिना किसी दोष की कल्पना किए सिद्ध होना कठिन है, क्योकि काव्य मे जो शकुंतला आदि का वर्णन है, उसका बोध हमे शकुंतला (दुष्यंत की स्त्री) आदि के रूप मे ही होता है, केवल स्त्री के रूप मे नही। तब यह तो सिद्ध हो ही गया कि शकुंतला आदि मे जो विशेषता है, उसे निवृत्त करने के लिये किसी दो, की कल्पना करना आवश्यक है; और उसी दोष के द्वारा अपने आत्मा मे दुष्यंत आदि के साथ अभेद समझ लेना भी सहज ही सिद्ध हो सकता है, फिर यों ही क्यों न समझ लिया जाय कि किसी प्रकार की गड़बड़ ही न रहे।

अब यहाँ एक शंका होती है कि आपने "अनिर्वचनीय रति आदि के अनंतर जो सुख उत्पन्न होता है, उसका और रति का भेद ज्ञान न होने के कारण हम उसे सुखरूप कहते है"। इस कथन के द्वारा जो 'रति आदि के अनंतर केवल सुख का उत्पन्न होना' स्वीकार किया है, सो ठीक नहीं; क्योंकि रति के अनुभव से एक प्रकार का सुख उत्पन्न होता है, यह वात वन सकती है; पर करुण रसादिको के स्थायी भाव जो शोक आदि हैं, वे दु ख उत्पन्न करनेवाले है, यह प्रसिद्ध है; अतः उनको सहृदय पुरुषों के आनंद का कारण कैसे कहा जा सकता है-यह कैसे माना जा सकता है कि उनसे भी सहृदयों को आनंद ही मिलता है। प्रत्युत यह सिद्ध हो सकता है कि जिस तरह