रसों के अवांतर भेद और उदाहरण आदि
शृंगार-रस
शृंगार-रस दो प्रकार का है-संयोग और विप्रलंभ। यदि स्त्री पुरुषों के संयोग के समय मे प्रेम हो, तो 'संयोग-शृंगार' कहलाता है, और यदि वियोग के समय मे हो, तो 'विप्रलंभ-शृंगार। पर संयोग का अर्थ 'स्त्री-पुरुषो का एक स्थान पर रहना' नही है; क्योंकि एक पलंग पर सोते रहने पर भी, यदि ईर्ष्या आदि हों, तो 'विप्रलंभ-रस' का ही वर्णन किया जाता है। इसी तरह वियोग का अर्थ भी 'अलग अलग रहना नहीं है; क्योंकि वही दोष यहाँ भी कहा जा सकता है। अतः यह मानना चाहिए कि 'संयोग' और 'वियोग' ये दोनों एक प्रकार की चित्तवृत्तियाँ हैं, और वे हैं 'मिला हुआ हूँ' और 'बिछुड़ा हुआ हूँ' यह ज्ञान। उनमे से 'संयोग-शृंगार' का उदाहरण 'शयिता सविधेऽप्यनीश्वरा' एवं 'सोई सविध सकी न करि...' इत्यादि पहले वर्णन कर चुके हैं। जो कि 'चित्र-मीमांसा' मे लिखा है-"वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये। जगतःपितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरी॥ (अर्थात् वाणी और अर्थ की तरह मिले हुए, जगत् के जननी-जनक पार्वती और परमेश्वर (शिव) को, वाणी और अर्थ के ज्ञान के लिये, अभिवादन करता हूँ) इस पद्य मे शृंगार-रस की ध्वनि है; क्योंकि इससे शिव-पार्वती का सर्वाधिक प्रेमयुक्त होना ध्वनित होता है।" सो यह