बनाई हुई 'करुणा-लहरी' नामक पुस्तक मे लिखा गया है और उसमे भाव (भगवत्प्रेम) ही प्रधान है, अतः इस पद्य मे भी उसी की प्रधानता उचित है। दूसरे, इस पद्य की ओजस्विनी रचना भी शांत-रस के प्रतिकूल है, इस कारण भी इसे उसके उदाहरण रूप में उपस्थित करना उचित नहीं। यदि कहो कि 'मलयानिलकालकूटयोः...' इस पूर्वोक्त पद्य मे भी 'परमात्मा मे स्थिति' का वर्णन है, अतः वहाँ भी भाव प्रधान होना चाहिए, उसे शांत-रस का उदाहरण कैसे कह दिया, तो उसका उत्तर यह है कि वहाँ 'परमात्मा मे स्थिति हो गई है। यह लिखा है, सो उसे अपने आत्मा मे भगवद्रूपता का बोध होने के कारण प्रेम की प्रतीति नहीं होती; क्योंकि प्रेम पृथक् समझने पर ही हो सकता है, ऐक्यज्ञान होने पर नहीं।
रौद्र-रस, जैसे-
नवोच्छलितयौवनस्फुरदखवगर्वज्वरे
मदीयगुरुकामकं गलितसाध्वसं वृश्चति।
अयं पततु निर्दयं दलितदृप्तभूभृद्गल-
स्खलद्रुधिरघस्मरो मम परश्वधो भैरवः॥
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नव-जौवन की बाढ़ ते बड़े गरब ते फाटि।
मेरे गुरु को धनुष यह निरभै ह्वै दिय काटि।
निरभै ह्वै दिय काटि अबै यह अतिसय भीषण।
तृप्त दृप्त भूपाल-कंठ-शोणित करि भतण॥