पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२३०

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सामने उपस्थित हूँ-आप लोगों का मुझे कुछ भी भय नही है, जिसकी इच्छा आवे, वह बात करले।

यहाँ बृहस्पति और सरस्वती आदि प्रालंबन हैं, सभा आदि का दर्शन उद्दीपन है, सब विद्वानों का तिरस्कार अनुभाव है, गर्व संचारी भाव परिपोषक है और इनसे पुष्ट किया हुआ वक्ता का उत्साह प्रतीत होता है। आप कहेगे-यह वो 'युद्ध-वीर' ही है क्योंकि युद्ध-शब्द से वाद-विवाद का भी संग्रह हो जाता है, क्योंकि वह भी एक प्रकार का झगड़ा ही है। तो हम कहते हैं यों ही सही; पर 'क्षमा-वीर' के विषय मे आप स्या समाधान करेंगे? जैसे-

अपि बहलदहनजालं मूनि रिपुमै निरंतरं धमतु।
पातयतु वासिधारामहमणुमात्रं न किञ्चिदाभाषे॥

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भलैं अहित जन दहन-गन मम सिर सतत जराहि।
कै पटकहिं 'असि-धार, पै है। कछु बोलौ नाहि॥

भले ही शत्रु मेरे सिर पर निरंतर गहरी भाग जलाते रहें, अथवा तलवार की धार पटकते रहें, पर मैं कुछ भी बोलने का नहीं। अथवा 'बल-वीर' मे क्या समाधान करेंगे? जैसे-

परिहरतु धरां फणिप्रवीरः, सुखमयतां कमठोऽपि तां विहाय।
अहमिह पुरुहूत! पक्षकोणे निखिलमिदं जगदक्लमं वहामि॥

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