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रसालंकार
इन रसों के प्रधान होने पर, इनके कारण, काव्य को 'रस-ध्वनि' कहा जाता है और दूसरों की अपेक्षा गौण होने पर इन्हे 'रसालंकार' कहा जाता है, और ऐसी दशा मे वह काव्य, जिसमे ये आए हो, 'रसम्वनि' नही कहला सकता। कुछ लोगों का कथन है कि जब ये प्रधान हो, तभी इनको रस कहा जाना चाहिए, अन्यथा ये अलंकार-मात्र ही होते हैं, उनमे रस कहलाने की योग्यता ही नही होती। तथापि लोग जो उन्हें रसालंकार कहते हैं, उसी प्रकार सो जैसे 'अलकार-ध्वनि'*[१] कहते हैं। इस बात को एक उदाहरण देकर समझा देते हैं। जिस तरह कोई ब्रामण बौद्धमत की दीक्षा लेकर 'श्रमण' (बौद्ध-मित्क) बन जाय, तब वह ब्राह्मण वो रहवा नही, तथापि लोग उसे पहले ब्राह्मण रहने के कारण ब्राह्मण'श्रमण' कहा करते हैं, बस, वही हिसाब यहाँ समझिए । अर्थात् जो किसी भी अवस्था मे रस या अलंकार शब्द से
- ↑ * इसका अभिप्राय यह है कि अलंकार उसका नाम है,जो किसी को शोभित करे, जिसे शोभित किया जाय उसका नही, और जो अर्थ ध्वनित होता है, वह किसी को शोभित नहीं करता, किंतु उसे अन्य उपकरण शोभित करते हैं। तब ध्वनित होनेवाले अर्थ को अलंकार रूप मानकर उसके कारण काव्य को अलंकारध्वनि कहना ठीक नहीं। किन्तु अलंकार्य ध्वनि कहना चाहिये, तथापि उसे 'अलंकारध्वनि' कहा जाता है।