पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३०७

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विसर्गों की प्रचुरता; जैसे-

  • [१] सानुरागाः सानुकम्पाश्चतुराश्शीलशीतलाः।

हरन्ति हृदयं हन्त कान्तायाः स्वान्तवृत्तयः॥

यहाँ दो शकारों के संयोग पर्यन्त पूर्वाध का भाग मधुरता के अनुकूल नहीं है।

जिह्वामूलीयों की प्रचुरता; जैसे-

[२]किलितकुलिशयाता केपि खेलन्ति वाता
कुशलमिह कथं वा जायतां जीविते में।
अयमपि वत! गुञ्जन्नालि! माकन्दमौली
चुलुकयति मदीयां चेतनां चञ्चरीक॥

यहाँ दूसरे जिह्वामूलीय पर्यंत का भाग मधुरता के अनुकूल नहीं है। पर यदि "कथय‡[३] कथमिवाशा जायतां जीविते


  1. * प्रियतमा की प्रेम और दया से युक्त, चतुर और शीतल चित्तवृत्तियां, हाय! हृदय को हरण किए लेती हैं।
  2. † विरहिणी कहती है कि-वज्र के से आघात करनेवाले न जाने कौन से वायु खेल रहे है, फिर, भला! मेरे जीवन की कुशलता कैसे उत्पन्न हो सकती है। और हे सखी! बड़े खेद की बात तो यह है कि आन की चोटी पर गूंजता हुआ यह भौंरा भी मेरे जीवन को चुल्लू किए जा रहा है।
  3. ‡ कह, मेरे जीवन की श्राशा कैसे हो सकती है, जब कि मलयाचल के चंदनो से लिपटे हुए सपों के उगले हुए ये कालरूप वायु चल रहे है।