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स्वभावादि

पंडितराज का स्वभाव उद्धत, अभिमानपूर्ण और महान् से महान् पुरुष के भी दोषों को सहसा उघाड़ देनेवाला था। नमूने के तौर पर एक एक उदाहरण सुनिए। पहले उद्धतता को लीजिए। किसी कवि से उसके बनाए हुए पद्य सुनने के पहले आप कह रहे हैं कि—

निर्माणे यदि मार्मिकोऽसि नितरामत्यंतपाकद्रव–
न्मृद्वीकामधुमाधुरीमदपरीहारोद्धुराणां गिराम्।
काव्यं तर्हिं सखे सुखेन कथय त्वं सम्मुखे मादृशां
नो चेद्दुष्कृतमात्मना कृतमिव स्वांताद्वहिर्मा कृथाः।

हे सखे! यदि आप अत्यंत पक जाने के कारण टपकती हुई दाख और शहद की मधुरता के मद को दूर कर देने में तत्पर वचनों की रचना के पूर्णतया मर्मज्ञ हैं, तब तो अपनी कविता को मेरे से मनुष्यों के सामने बड़े मजे से कहते रहिए। पर यदि आपमें वह शक्ति न हो, तो, जिस तरह मनुष्य अपने किए हुए पाप को किसी के सामने प्रकट नहीं करता, उसी तरह आप भी अपनी कविता को अपने हृदय से बाहर न होने दीजिए। आप अपने उस अपराध को मन के मन में ही रखिए, कहीं ऐसा न हो कि जबान पर आ जाय।

देखिए तो कैसी उद्धतता है। कविता को अपराध तो बना ही दिया, केवल सजा देना बाकी रह गया। सो, शायद, वह वेचारा वैसे पद्य बोला ही न होगा, अन्यथा, अधिक