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पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३४९

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नासमान सब जगत ही तामे पुनि यह काय।
तेहिँ हित कितनो करत मैं यह महान श्रम हाय!

एक विरक्त पुरुष कहता है कि-(प्रथम तो ) सब जगत् ही विनाशशील है-उसकी कोई वस्तु स्थिर नहीं। और, फिर जगत् मे भी यह शरीर सबसे अधिक विनाशशील है। इसका कुछ भी पता नहीं कि यह आज या कल भी रह सकेगा। मुझे खेद है कि मैं उसके लिये यह कितना परिश्रम कर रहा हूँ।

यहाँ "शरीरमेतज्जलबुद्बुदोपमम् (अर्थात् यह शरीर जल के बबूले के समान है" इत्यादि शास्त्र की पर्यालोचना विभाव है, और 'हंत'-पद से प्रतीत होनेवाली अपनी निदा, राज-सेवा-आदि का त्याग और तृष्णा की शून्यता-प्रादि अनुभाव हैं। यहाँ झट से मति-भाव का ही चमत्कार प्रतीत होता है, सो इस पद्य को 'ध्वनि' कहे जाने का कारण वही है, शान्त-रस नहीं; क्योंकि वह विलंब से प्रतीत होता है।

१५-व्याधि

रोग और वियोग आदि से उत्पन्न होनेवाला जो मन का ताप है, उसे 'व्याधि' कहते हैं। इसमें अंगो की शिथिलता और श्वास-आदि अनुभाव होते हैं। जैसा कि लिखा है-

एकैको द्वन्द्वशो वा त्रयाणां वा प्रकोपतः।
वातपित्तकफानां स्युधियो ये ज्वरादयः॥
इह तत्प्रभवो भावो व्याधिरित्यभिधीयते।