पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३५

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में तो आपने हद ही की है। पर आप ध्वनिकार श्रीआनंदवर्धनाचार्य के परम भक्त हैं, समय समय पर आपने उनका बड़े आदर से स्मरण किया है; किंतु उस दोषदर्शिनी दृष्टि के पंजे से वे भी कैसे बच सकते थे? एक जगह (रूपकध्वनि के उदाहरण में) चक्कर में आ ही गए। फिर क्या था, झट से लिख दिया 'आनंदवर्धनाचार्यास्तु...' और 'तच्चिंत्यम्'।

आपके उदाहरणों में शाही जमाने की झलक भी आ ही जाती है। उस समय कबूतरों के जोड़े पालने का बहुत प्रचार था, और अब भी यवनों में इस बात का प्रचार है। सो आपने लज्जा-भाव की ध्वनि के उदाहरण मे लिख ही दिया—

निरुद्ध्य यान्ती तरसा कपोतीं कूजत्कपोतस्य पुरो ददाने।
मयि स्मितार्द्रे, वदनारविन्दं सा मन्दमन्दं नमयाम्बभूव॥[१]

उत्तर भारत में रहने पर भी आप पर दाक्षिणात्यता का प्रभाव ज्यों का त्यों था। देखिए तो भावशबलता का दृष्टांत किस तरह का दिया गया है—

नारिकेलजलक्षीरसिताकदलमिश्रणे।
विलक्षणो यथा स्वादो भावानां सहतौ तथा॥

अर्थात् जिस तरह नारियल के जल, दूध, मिश्री और केलों के मिश्रण में विलक्षण स्वाद उत्पन्न हो जाता है, उसी तरह भावों के मिश्रण में भी होता है। क्या इस विलक्षण मिक्स्चर को दाक्षिणात्यों के सिवा कोई पहचान सकता है?


  1. इसका अर्थ अनुवाद में देख लीजिए।