अर्थात् अनुभावों को छिपाने के लिये जो भाव उत्पन्न होता है, उसे 'अवहित्थ' कहते हैं। उसके विभाव भय, लज्जा, धृष्टता, कुटिलता और गौरव होने चाहिएँ। जैसे-
प्रसंगे गोपानां गुरुषु महिमान यदुपते-
रुपाकर्ण्य विद्यत्पुलकितकपोला कुलवधः।
विषज्वालाजालं झगिति वमतः पन्नगपतेः
फणायां साश्चर्य कथयतितरां ताण्डवविधिम्॥
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गोपनि बातनि करी, गुरुन बिच, परम बड़ाई।
जदुपति की, कुलनारि सुनी, सो अति मन माईं॥
भए कपोलनि सेद-सलिल अरु पुलकनि पाँती।
होन लग्यो अति हरख प्रकट वाको इहिँ भाँती॥
सो विष-झारनि भाल अति वमत कालि फनिपति फननि।
निरतन की कहिवे लगी बात सखिन अचरज-करनि॥
एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि-गोपों ने, प्रसंग आ जाने पर, गुरुजनों के बीच में, भगवान कृष्णचंद्र की बड़ाई कर दी। पास में बैठी हुई एक कुलनारी ने भी यह प्रसंग सुन लिया। फिर क्या था, प्रेम के कारण कपोलों पर पसीना और रोमांच उत्पन्न हो गए। कुलवधू ने देखा कि अब सब चौपट हुआ जाता है, अतः उसने विषज्वाला के समूह को सपाटे से उगलते हुए अहिराज कालिय के फणों पर