पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३७५

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तृष्णालोलविलोचने कलयति प्राची चकोरव्रजे
मौनं मुञ्चति किञ्च कैरवकुले, कामे धनुर्धुन्वति।
माने मानवतीजनस्य सपदि प्रस्थातुकामेऽधुना
धातः! किं नु विधौ विधातुमुचितो धाराधराडंबरः॥
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चंचल नैन चकोर तृषित कै प्राचिहिं जोवत,
कुमुद हु बाँड़त मौन रहे जे अब लौं सोवत।
धुनत धनुष मदनेश मान हू तजत मानिनिनि।
कहा उचित या समय विधे! विधु पै कादम्बिनि॥

कवि विधाता से कहता है*[१]-चकोरों का समूह प्राशा से चंचल नेत्र किए हुए पूर्व दिशा को स्वीकार कर रहा है-टकटकी लगाकर उसी तरफ देख रहा है, कुमुदों के वृद भी मौन छोड़कर चटक रहे हैं, कामदेव अपने धनुष को कंपित करके टंकार शब्द कर रहे हैं और मानिनियो का मान प्रस्थान करना चाहता है-कमर बाँधे खड़ा है; हे विधाता! ऐसे समय मे क्या आपको यह उचित है कि चंद्रमा पर मेघाडंबर करें! राम! राम!! आपने बहुत बुरा किया।


  1. * यह पद्य किसी ऐसे अवसर पर लिखा गया प्रतीत होता है जब कि किसी राजकुमार की उपस्थिति की अत्यन्त आवश्यकता थी; परंतु वह किसी दैवी कारण से उपस्थित न हो सका। क्योंकि "प्रस्तुतराजकुमारादिवृत्तांतस्य" इत्यादि आगे का ग्रंथ तभी संगत हो सकता है।

    -अनुवादक