भावोदय
इसी तरह भाव की उत्पत्ति का भावोदय कहते हैं। उदाहरण लीजिए-
वीक्ष्य वक्षसि विपक्षकामिनीहारलक्ष्म दयितस्य भामिनी।
असदेशवलयीकृतां मणादाचकर्ष निजवाहुवल्लरीम्॥
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देखि भामिनी दयित-उर हारचिह्न दुख-मूरि।
गल तिपटी निज-भुजलता कीन्ही छिन में दूरि॥
क्रोधिनी नायिका ने, प्यारे की छाती पर, सौत के हार का चिह्न देखते ही, जो वाहु-लता कंधे के चारों ओर लिपट रही थी, उसे तत्काल खोच लिया।
यहाँ भी प्यारे के वक्षःस्थल पर सौत के हार का चिह्न दीखना विभाव है और उसके कंधे पर से लिपटी हुई भुजलता का खींच लेना अनुभाव है। इनसे रोषादिक व्यंग्य हैं।
यद्यपि भावशांति मे किसी दूसरे भाव का उदय और भावोदय मे किसी पूर्व भाव की शाति आवश्यक है, तात्पर्य यह कि भावशांति और भावोदय एक दूसरे के साथ नियत रूप से रहते हैं, अतः इन दोनों के व्यवहार का विषय पृथक् पृथक नहीँ हो सकता। तथापि एक ही स्थल पर दोनों तो चमत्कारी हो नहीं सकते, और व्यवहार है चमत्कार के अधीनअर्थात् जो चमत्कारी होगा उसी की ध्वनि वहाँ कही जायगी;